श्रीविचारसागर | Shrivicharsagar

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Shrivicharsagar by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ष्(० ७ ३ ॥ अथकी जिर्द्‌ ॥ इस भथकी चटयोडृत्िकी जिर देखनेतें ही निश्चय होता था कि श्रीपचद्ीसटीकासमाषा द्वितीयादृत्तिकी जिल्‍्दकी न्याह बह जिल्द थी महाघंदर, चि्ताकषैकं ओं उत्तमअधेवाद कर- तैत अव्यत द्रव्यखचं ओ परिश्रम किया था ॥ है कि अबकी बार इम इस अन्य की व जिर न चना सके; जैसी कि चतुथौबृत्तिमं' बनाई थी; कयों- किं कागज, स्याही, रग, कपड़ा कारीगर आदि होंगे किन्तु क्षमा दी करके पढ़िले - जैसा- ही उदार मनसे आश्रय देंगे. ष दरवा सुंदरता य पदा्थविभे उत्पन्न करे ई ओ नहा बी अवश्य होवे है यहं खान निया, है। उसका रसा द ण॒ हि पः मदत्तिक ट्वी नियम है। जहा दर वार प्रवृत्ति होवे स इ उपयोग. ह । इस रीतिसें सुंदरताकों काई उत्तमअर्थंकू ~ भवृत्ति होते ही इ 66 | यह स्वाभाविक है । इस हेतुकूं के हमारे अ्रेथोंकी मरे अरथोकी निरुद्‌ ऊप्र छाप हव चिन शाद नह नाये नहीं । परतु सुद्रताके साथि ड उत्तम- भक्‌ स्मारक हव इस इते दिय जपि ई ॥ परचमावृत्तिकी भस्वावनो ॥ १५ भक्ती निद्द ऊपर जे चित्र चित्र है तिन- लो अरथेकी कल्पना करी है, सो नीचे ॥ गनजे्धमोक्षका चिच ॥ यह्‌ चित्र देखन जान्या जागा किं सरा- वरविषै गजराजदूं एक आहन बहुत बढपूवेक रहण किया रै ओं सो गजराज ग्रसनं युक्त हनथ अत्य॑त बक करता रै, इतना दी नरह पतु गजराजका टैव परिवार भपआपकी यंडा्दडसै तिस गजराजकुं बाहिर सीच छेनेमें अर्यतत परिभम करता भया। रेस दीर्घम्रयलसै बी अपना सुक्त होना अशक्य देखिके सो गजराज सरोवरविंषे उत्पन्न हुये अंबुजोंमेसे एककूं तोडिके झुंडसे मस्तकउपारि धरिके, जब नं | मक्तिमावपुवंक श्रीविष्णुकी भाथना करता भया तव स्वुतिंधं प्रसन्न इवा ह अंतःकरण जिसका ` ओं परमद्याछ है स्वभाव जिसका, ऐसे श्रीविष्णुमगवान्‌ आपके चक्रम तत्काल गर्जदका महत उद्धार करते भये ॥ इस कथाभूतर्पकविषै सो उत्तमसाराथ यूढ रहा है । सो यह ३ैः-- गजराजकू तो अज्ञानी जीव, प्राहु तौ महामोइरूप माया ओ सरपरुतो अपार दुस्तर संसार समझना ॥ जैसे सरोवरविषे रमण करता हक गर्जद्र आइसे अस्त भया है, तेसें संसार रमण अज्ञानी जीव मलः मषानमहामेहरूप मायात भ्रस्त दोवे है ॥ जैसें गजराज आपके ओं प बी द ते जीव बी केवर अप दठयोगादिक होप ६ । परु भसे गजराज हरिस्तृतितें श्रीह य कंरिके तिनके ९६. ९ युक्तः इवा । त व्‌




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