गगनाचल | Gaganaauchal

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Gaganaauchal  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सारस्वत सभ्यता बनाम चिन्धु सभ्यता 15 इतना तीव्र और प्रबल होता था कि पर्वतों की चोटियों को फूल की पंखुड़ियों के समान तोड़कर बहा देता था । इस प्रकार के सरस्वती-नदी-संबंधी वर्णन ऋग्वेद के सत्तासी मंत्रों में उपलब्ध होते हैं, जबकि गंगा का उल्लेख केवल एक मंत्र में हुआ है। अधिकांश भारतीय तथा विदेशी इतिहासकार एवं पुरातत्ववेत्ता सिन्धु घाटी की सभ्यता को ही प्राचीनतम मानते है, परंतु सारस्वत सभ्यता उससे भी करई हजार वर्ष पुर्व की सभ्यता मानी गई है । अथर्ववेद के एक मत्र के अनुसार देवताओं के सप्रार शतक्रतु इद्र ने सरस्वती नदी की रमणीय तटभूमि पर हल चलाकर मधुर यवों की खेती की । देवता, मरुद्गण ओर दानवो ने किसानों के रूप मे कृषि-कर्म का अनुष्ठान किया । एक प्रकार से यह सारस्वत सभ्यता के अंतर्गत सामूहिक या समन्वित कृषि-कार्य का सूत्रपात ही था । वस्तुतः भारत की नदीतमा सरस्वती ने अति प्राचीन काल से ही मानव जाति के जीवन में क्रोतिकारी परिवर्तन किया ओर अनेकानेक नगरों व ग्रामो को आल्पावित किया । परंतु भोगोलिक परिवर्तनां के कारण, शिवालिक एवं हिमालय पर्वतं के निरंतर ऊपर उठते रहने से ओर भू-पुष्ठ के बदलते रहने से महानदी सरस्वती धीरे-धीरे लुप्त हो गई । कभी इसमे समाविष्ट होने वाली शतद्रु ओर यमुना सखतंत्र मार्गों पर बहने लगीं । इतना ही नहीं, सरखती के समान ही जिस दृशद्रती नदी का बार-बार वर्णन हुआ है ओर जो कुरक्ेत्र तथा राजस्थान मेँ समानांतर रूप में बहती रही उसने भी सरस्वती के क्षीण प्रवाह को अपने में समाहित कर लिया । वह वही दृशद्रती है जिसे मध्य-युग में पत्थरों वाली नदी ओर वर्तमान में घग्घर कहा जाता है । इस प्रकार जल-प्रवाह के खंडित एवं विभक्त हो जाने से सरस्वती नदी अपनी विराटता को खोती रही । वैदिक युग में वह अत्यंत समृद्ध एवं ओजस्विनी प्रवाहमयी रही है । महाभारत काल मेँ वह दृश्या ओर अदृश्या बनी रही ओर पौराणिक युग में वह लुप्त एवं अंतःसलिला बन गई । सरस्वती नदी के लुप्त होने के कारणों को तथा उसके प्रवाह मार्ग को दढन के लिए दो सो वर्षो से देश-विदेश के इतिहासकारों, पुरातत्ववेत्ताओं, भूगर्भशास्त्रियों, नृतत्त्वशास्त्ियों एवं साहित्यकारों का प्रयास जारी है । इसी अनुक्रम मे सन्‌ 1985 के नवम्बर में श्री बाबा साहब आप्टे स्मारक समिति की ओर से भारतीय इतिहास संकलन-योजना के अंतर्गत सरकारी अनुदान के बिना ही एक स्वतंत्र वेदिक सरस्वती नदी शोध अभियान दल गठित हआ । इस दल के अभिनायक स्वर्गीय श्री विष्णु श्रीधर वाकणकर थे। इनके नितांत सानिध्य में तथा अभियान दल के शोध-कार्य में आरंभ से अंत तक रहने का मुझे अवसर प्राप्त हुआ | इस दल ने शिवालिक पर्वतमाला में स्थित आदिबद्री से लेकर पश्चिम समुद्र के तटवर्ती प्रभास-क्षेत्र में स्थित सोमनाथ मंदिर तक लगभग चार हजार किलोमीटर यात्रा की । इस यात्रा का मार्ग इतना लंबा इसलिए हो गया है कि सरस्वती का प्रवाह-मार्ग हरियाणा-कुरूक्षेत्र राजस्थान-बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर और गुजरात के अम्बानी, सिद्धपुर आदि नगरों, उपनगरों,




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