बर्फ का संसार | Braph Ka Sansar

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Braph Ka Sansar by हंसराज दर्शक - Hansaraj Darshak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बफं के पहाड़ १९१ थी । बफं ्रह्यधिक सर्दीसे जम जनेके कारण धुते हुए संगमरमरकी भोति सफद, चमकीली ग्रौर ससुत थी । हाँ, बीच-बीच में इधर-उधर धरती की सतह से ऊची उटी हुड कु चोटियां थीं, बफ से ठको हृ शुभ्र शंकु-सी । उनमें कुं तो सूयं की सुनहरी किरणों से नुकीले कच की तरह्‌ चमक रही थीं ग्रौर कु दुग्ध-फेन जेसी श्वेत । चिलचिलाती धूप मे इन हिम-राशियों की छटा कुछ श्रनोखी ही होती है-जेसे किसी विशाल बिल्‍्लौरी शीशे पर सूयकी सीधी किरणे पड रही हों । सबका प्राकार पृथक- पुथक था । किसी का छोलदारी जंसा, तम्बू जेसा या किसी मन्दिर के गुम्बद से मिलता-जुलता । चोटियों के अ्रलावा ढलानों पर, पगडंडियों पर, तथा खाइयों में दूर-दूर तक हिम का श्रखराड राज्य फला हुम्रा था, एकमात्र हिम का राज्य ! बफें के इस पहाड़ पर चढ़ते समय हमें कई बार कठिनाई का सामना करना पड़ा । बत्लम-सहित नुकीली छड़ी की सहायता से चार-चार, छः-छः कदम पर रुककर हम उस विस्तृत हिम-प्रदेश तक जा पहुँचे । कंप- कपाती सर्दी भेली, पतली हवा में शवास-प्रइवास की कठिनाइयों को सहन किया । परन्तु ऊपर पहुंचकर जब हमने मव्य हिमि-मंडित गिरिम्णगोंको देखा तब हमारी प्रसन्नता की सीमा न रही । हरय गद-गददहो उठा ग्रौर मन बाँसों उछलने लगा । उस समय हमें कुछ ऐसा लगा जेंसे हम स्वर्ग में ग्रा गयेहँ। मागं की समस्त थकरान का कष्ट जाता रहा । यहाँ प्रकृति श्रपने पणं सात्विक स्वरूप मे शोभायमान थी । वातावरण शांतिमय था । नीला- काश के नीचे शुश्र-किरीट वस्त्रधारी उत्तुग शंल-शिखर इतने मनोहारी श्रौर सुहावने लग रहे थे कि उनसे लौटकर श्राने को जी नही चाह रहा था । हिम-पव॑तों के विशाल समूह के बीच में स्थित यह रमणीय स्थान अपनी श्रलौकिक सुन्दरता के लिए संसार में प्रसिद्ध है । सहसा ही कविवर श्वी रामधारी सिह्‌ 'दिनकर' की थे पंक्तियाँ हमारे घरों से फूट पड़ीं :-- ‹“मेरे नगपति ! मेर विक्ञाल ! साकार, दिव्य, गौरव विरार 1! पौरष के पुजोभूत ज्वाल !




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