श्री भागवत - दर्शन भागवती - कथा भाग - 27 | Shri Bhagawat - Darshan Bhagavati Katha Bhag - 27

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Shri Bhagawat - Darshan Bhagavati Katha Bhag - 27  by श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी - Shri Prabhudutt Brahmachari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मृत्यु का भय ११ भागवती कथा की वात सो वह कहने योग्य नहीं है। वर्ष के अन्त में पाँच छे सहस्त्र का घाटा होता है । उसे घाटा कहना भी उचित नहीं । उसकी दक्षिणा से जो कुछ आता है उसे सब लोग खा जाते है। भन्न भा जाता है ऊपरी फार्यों में व्यय हो जाता है । नित्य डाकघर की आयशा लगाये लोग बैठे रहते है, आज कुछ आ जाय तो दाल भा जाय नमक झा जाय । वर्ष के अन्त मे जो घाटा हो जाता है, भगवान्‌ किसी न किसी से पूरा करा ही देते है । प्रथम वर्ष में देहली के लाला सूरजनारायणजी ने अपने इष्ट मित्चों से कर करा के ५-७ हजार रुपये से उसे पूरा किया । दूरे मे भरियाके वीरमवाव्रूने पाँच हजार देकर गाड़ो चलायी । अब तीसरे वर्ष भी पस्टम चल रही है। रही मेरी बात सो, मेरे परिचित सभी जानते है मेरे कुछ कृपालु महानु- भाव हैं, जिनसे मैं किसी से चार पंसे किसी से दो पेसे नित्य के भिक्षा ले लेता हूँ। ऐसे कुछ “भिक्षा सदस्य” हैं । पहिले लोग उत्साह और श्रद्धा से देते थे! जवसे “भागवती कथा' का व्यापार भारम्भ हुआ है। लोगों की श्रद्धा घट गयी हैं। सब सोचते हैं--''अब तो ये व्यापार करने लगे हैं। जैसे हम वैसे ये इन्हें भिक्षा देने से क्या लाभ ?” इसलिये बहुत से बन्द भी कर दिये है। फिर भी कुछ बगीचे में साग भाजी वो लेते हैं । लस्टम पस्टम काम चल ही जाता है। मेरा जो व्यापार है, उसमें या तो घाटा ही घाटा है या लाभ ही लाभ है। घाटा तो इसलिये कि कभी इसमें आर्थिक लाभ न होगा । दश आय होगी, तो बीस व्यय होंगे । लाभ इसलिये हैं, कि जो भी कमी पड़ेगी चाहे ऐ' करके करें चाहें चें करके, लोगों को पूरी ही करनी होगी । इसलिये हमें तो लाभ ही लाभ है नदी में नौका डूबती है, तो मल्लाह की तो केवठ लेंगोटी ही भीगती है। ऐसी दशा में यहाँ डाका डालकर कोई क्या लेगा 1 जानते हुए भी सन्देह




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