जैन दार्शनिक संस्कृति पर एक विहंगम दृष्टि | Jain Darshanik Sanskriti Par Ek Vihangam Dristi

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Jain Darshanik Sanskriti Par Ek Vihangam Dristi  by शुभकरण सिंह बोथरा - Shivkaran singh Bothra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ३ ) व्यक्तियों का समस्त समुदाय के व्यवहार व विचार पर एक छात्र ाधिपत्य, स्वाथियों के हार्थो स सत्ता का दुरुपयोग, सामान्य सी बातों पर भीषण युद्दों का ताइव, तत्न ज्ञान का विलोप, यड्‌ थी भाज से १५८०० सै ३००० वधं पूवे की गाथा । यद्यपि ३००० बष' पूर्व व्यवहार मं सौष्ठतव धिदा नहीं पा चुका था एवं उस समय मी समृद्धि तथा सुख की शोभा में निश्रे हुये भारतीय व्योम के बादल यदाकदा न्य मानव समूहों पर अपना शाति पीयूष छिटका दिया करते थे किन्तु ज्ञान की गति के रुख को बदलता हुआ देख दूरदर्शी समम गये थे कि श्रव समयका प्रवाह कठिन दुर घाटियों के बीच से बहेगा एवं आाश्चय नहीं, सभ्यता शिलाखंडों से टकरा कर विध्वंश हो जाय । अत अपनी पनी सुक के श्रनुसार सभी ने भारतीय सभ्यता को कठोर बनाने का प्रयत्न किया, किंतु प्रबाद के वेग के श्रनुरूप शक्ति सधय न हो सका एवं बिखर गयी हमारी सारो पूंजी, इम मागेभष्ट हए अंत मे पददक्लित भी । प्राक्तन काल के उन दुरदशिर्यो भे महाबीर का नाम श्चप्रगण्यो छी गणना मे श्चा चुका है| समाज कै किये नया विधान दिया महाबीर ने, तत्वबिता के क्रम को स्थिर किया एवं सत्य के स्वरूप को अधिक स्पष्ट करने में सफलता प्राप्त की, तुज्नना व युक्ति की सार्वभीमिक महदा- नता का दिग्द्शन कराया तथा व्यवद्दार व निश्चय ( स्वभाव ) के पारस्परिक संदब का ध्यान रखते हुये उनको यथा व योग्यता




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