पिच्छि - कमण्डलु भाग - 1 | Pichchhi - Kamandalu Bhag - 1

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Pichchhi - Kamandalu Bhag - 1  by विद्यानन्द मुनि - Vidhyanand Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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1 लिए श्रपनी तनुकान्ति को लिये दिये भ्रस्तंगत हो जाता है, उसी प्रकार भ्रनधीत- दास्त्र, अनुपाजिततप:संयमाचार व्यक्ति भी पुरुषायुष मोगकर सामान्य दशा में ही भ्रस्त हो जाता है । वास्तविक गुरु की महिमा तो सूयं से भी प्रधिकदै। सूर्यं तो प्रतिदिन दिनप्रमाण समय में श्रालोक वितीरणं कर पदिचिम की झोट हो जाता है किन्तु गर्देवं ती रात्रिन्दिव भ्रहरह जाग्रत्‌ ही र्ते हैं, कभी डूबते नहीं । सूपें लोक के बाहधान्धकार का नादा करता है तो गुरु बाहर-भीतर के सारे खोट रूपी तिमिर को सदा के लिए ही श्रपास्त कर शिप्य को विमल-विरज कर देता है। जसे सूयं के भ्रस्त होते ही श्रन्धकार पुनः दिशाग्रो मे व्याप्त हो जाता है, उस प्रकार गुरु द्वारा निरस्त किया हुमा भ्रज्ञानखूप प्रन्धकार पूनः हिष्यकी दृश्य दिशामों में श्रपना प्रसार नहीं कर पाता इस हष्टि से गुरुपद सूर्य से भी उत्कृष्ट है। इसीलिए चिर उपकृत शिप्य निम्न शब्दों में गुरु के प्रति श्रपनी विनीत श्रद्धा जलि श्रपित करता दै- श्रजञानान्धस्य लोकस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया । वचुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः} गुडः शब्द की निरुक्ति मे कहा गया है कि शुः शब्द ्रन्धकारपरकं है प्रीर रु शै उसका निवतंक है । इस प्रकार भज्ञानान्धकारका निवारण करने से ही गुर शब्द की सामिप्राय निष्पत्ति होती है । इस प्राशय का वह्‌ रलोक दहै-- शु श्स्तन्धकारे च “र शब्दस्तन्निवर्तंकंः । द्मन्धकारविनाशितखाद्‌ शुर' रित्यभिधीयते ॥' जीवन का भ्रारम्म, उसकी रिक्षा-दीक्षा गुरुचरण की उपासनासेही सफनता कौ प्रोरप्रग्रसरहोतीहै। प्राणी को कृताङृतविवेक गुरु के सान्निध्य में ही प्राप्त होता है । गुरु का स्नेह श्रौर फटकार दोनों ही श्रशेष कामनाओओं की पूरक तथा योग्यता की दात्री है । जिस प्रकार शूप॑ ( छाज, तितउ) से धानक तुष को फटक कर भ्रलग कर दिया जाता है वसेही गुरु की फटकार से दिष्य के दोषसमूह भलग हो जाते हैं । गुरु संसार की उत्ताल-प्रान्दोलित समुद्राभ विषय- वासना-कपाय-बहुल तरगों से कुल नाविक के समान बचाता हुआ उस पार पहुँचा देता है भ्रन्यथा भ्रज्ञान की शिला पर बैठा मनुज डूब जाता है, निष्देष हो जाता है । गुरु ही ज्ञान की चिन्तामरि शिष्य को प्रदान करता है जिसके प्रकाश में बहु पथ-प्रपथ की पहचान कर भ्रपना स्व-पर विवेक प्रशस्त करता है। गुरुदेव की झाराधना के बिना प्राप्त ज्ञान सन्दिग्ध होता है, उसे 'इदमित्थमु' की निष्चय-




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