अनेकान्त | Anekant
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
268
श्रेणी :
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No Information available about गोकुलप्रसाद जैन - Gokulprasad Jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)निर्गुण रहस्य भावना श्रौर जेन रहस्य भावना
निगरेण का तात्पयं है--पूर्ण बीतराग श्रवस्था । कबीर
झादि निगुंणी सस्तों का ब्रह्म इसी प्रकार का निर्गुण श्रौर
निराकार माना जाता है । कंबीर ने निगुंण के साथ ही
सगुण ब्रह्म का भी वर्णन किया है' । इसका श्रथ यह है
कि कबीर का ब्रह्म निराकार श्रौर साकार, द्रत श्रौर
प्रैत तथा भावरूप श्रौर श्रभावकरूप है। जैसे जैनों के
प्रनेकान्तमें दो विरोधी पहलू श्रपेक्षाकृत दृष्टिसे निम
सकते है, वैसे कनीरके ब्रह्ममेभीदटहै। कबीर पर जाने
अनजाने एक ऐसी परम्परा का जबरदस्त प्रभाव पड़ा था,
जो श्रपने में पूर्ण थी श्रौर स्पष्टत: कबीरदास की सत्या-
न्वेषक बुद्धि ने उसे स्वीकार किया । उन्होंने श्रनुभूति के
माध्यम से उसे पहिचाना । जैन परम्परा में भी भ्रात्मा
के दो भेद मिलते है । निष्कल श्रौर सकल । इसे ही हम
क्रमश: नियुण श्रौर सगुण कह सकते है। रामसिंह ने
निगुण को ही निसंग कहा है । उसे ही निरंजन भी
कहा जाता है । दूसरे दाब्दो में हम कह सकते हैं कि
पञ्चपरमेष्ठियों में श्रहन्त श्रौर सिद्ध क्रमदा: सगुण श्रौर
निगुण ब्रह्म है जिसे कबीर ने स्वीकार किया है । बनारसी-
दास ने इसी निगुण को शुद्ध, बुद्ध, भ्रविनाशी श्रौर शिव
संज्ञाश्नों से श्रभिहित किया है ।
उनकी कशाय जहां एक तरफ लौकिक दिखाई देती है, वहां
रूपक के माध्यम से वही पारलौकिक दिखती है, जबकि
जैन कवि प्रतिभा सम्पन्न होते हृए भी इस हली को नहीं
प्रपना सके । उनका विशेष उदेश्य भ्राध्यारिमक सिद्धान्तो
का निरूपण करना रहा । जायसी का प्रात्मा श्रौर ब्रह्म ये
दोनों पृथक्-पृथक् तत्व है जो श्रन्तमुखी वृतियो के माध्यम
से भ्रद्दैत श्रवस्था में पहुंचते हैं; जबकि जैनों का परमात्मा
झात्मा की ही विधुद्धतम स्थिति है। वहां दो पृथक्-पृथक्
तत्व नहीं इसलिए मिलन या ब्रह्मसाक्षात्कार की समान
तीव्रता होते हृए भी दिशाय भ्रलमै-प्रलग रहीं । **””””
1 डा० श्रीमती पुष्नलता जेन
कबीर की माया, श्रम, मिथ्याज्ञान, क्रोध, लोभ,
मोह, वासना, श्रासक्ति श्रादि मनोविकार मन के परिधान
है, जिन्होने त्रिलोक को श्रषने वश्चमेकियादहै । यहु माया
ब्रह्मा की लीला की शक्ति है” । इसी के कारण मनुष्य
दिग्श्रमित होता है। इसीलिए इसे ठगौरी, ठगिनी, छलनी,
नागिन श्रादि कहा गया गया है । कबीर ने व्यावहारिक
दृष्टि से भाषा के तीन भेद माने है - मोटी माया, भीनी
माया श्रौर विद्यारूपिणी । मोटी माया को कर्म कहा गया
है । इसके भ्रन्तरगेत घन, सम्पदा, कनक, कामिनी ्रादि
श्राते टै! पूजा-पाठ प्रादि बाह्याडम्बरमें उलभनाभी
एसे कमं है जिनसे व्यक्ति परमपदकी प्राप्ति नही कर
पाता। भनी माया के भ्रन्तगत श्रा, तृष्णा, मान श्रादि
मनोविकार प्राति टै। विद्यारूपिणी माया के माध्यम से
सन्त साध्य तक पहुंचने का प्रयत्न करते है। यह श्रात्मा
का व्यावहारिक स्वरूप है ।
जैनों का मिध्यात्व श्रथवा कमें कबीर की माया के
सिद्रान्त के समानार्थक है। कवीरके समान जैन कवियों
ने भी माया को ठगिनी कहा है । कत्रीर की मोटी माया
जैनों का कम है जिसके कारण जीव में मोहासक्ति बनी
रहती है । जैसा हम देख चुके हैं, जैन कवि भी कवीर के
१. सतों, घोखा कांसू कहिये,
गुण में निरगुण, निरगुण में गुण,
बांट छाड़ि क्यू नहिये ? --कबीर प्रंथावली, पद १८०
जैन शोष श्रौर समीक्षा--पृ० ६२
परमाह्मप्रकाश, १-२५
पाहुड़दोहा, १००
परमात्मप्रकाद, १०१९
बनारसी बिलास, शिवपच्ची सी, १-२५
कबीर प्र॑थवली, पुण ९६६
वही, ¶० १५१
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९. बही ¶० ११६
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