जैन सम्प्रदायशिक्षा | Jain Sampradyaya Shiksha
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
86 MB
कुल पष्ठ :
755
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)% जनसम्प्रदायशिक्षा ।
का भय मानो। खेल मत खेलों । हँसना बुरा है। सब को जीव प्यारा है।
तब हम जावेंगे। तुम केवक बेठे रहते हो । अपने अध्यापक से पढ़ो । हमारी
पुस्तक छाओ । अन्दर मत जाओ । तरेसठ का संवत् है। पण्डित का कहना
मानो ¦ यन्नाख्य छापखाने का नास है। विद्यालय पाठशाला का नाम हे।
औषधालय दवाघर का माम है । कालचक्र सदा फिरता है । इस समय अंग्रेजों
का राज्य है । बुरी तरह से बैठना उचित नहीं है । मीठे वचन बोला करो ।
बेफायदा बकना बुरा है। पानी छान के पिया करो । दुष्ट की संगति मत करो ।
खूब परिश्रम किया करो । हिंसा से बड़ा पाप होता है। वचन विचार कर
बोलो । मिठाई बहुत सत खाओ । घमंड करना बहुत बुरा हे । व्यायाम कस-
रत को कहते हैं । तस्कर चोर का नाम हे । यदद छोटा सा झाम है। सब का
कमी अन्त है । दद़ मज़बूत को कहते हैं । स्पर्शन्द्रिय त्वचा को कहते हैं । घ्राणे-
न्दिय नाक को कइते हैं । चप्नु नाम आंख का है । कण वा श्रोन्र कान को कहते
हैं । श्रद्धा से शाख को पढ़ो । दाख का सुनना भी फल देता है । संस्कृत मे अश्व
घोड़े को कहते हैं । कृष्ण काले का नाम है। गृह घर का नाम है । दशारीर में
श्रोन्न आदि पाँच इन्द्ियां होती हैं । मनकी झुद्धि से ज्ञान की माप्ति होती है ॥
कुछ आवद्ययक दिक्षायें ।
जहां तक हो खके दिश्वासपान्न बनो । जघटे का कमी निश्वास सत करो । शपथ
खानेवाला प्रायः झूठा होता है. । जो तुद्यारा विश्वास करता है उसे कमी धोखा
मत दो । माता पिता ओर गुर की सेवा से बद कर दूसरा धर्म नहीं है । राज्य
के नियमो के अनुसार सर्वदा वर्तव करो । सवेरे जल्दी उठो ओर रात को जद्दी
सोओ । अजीर्ण सें भोजन करना विष कै तुल्य हानि पड्ंचाता है । दया धै का
मुख्य अँग है, इस लिये निर्दय पुरुष कमी धमौत्मा नहीं बन सकता हे । प्रति-
दिन छ विद्याभ्यास तथा अच्छा काय करो । साधु महाव्माओं का संग सदैव
किया करो । जीवदान ओर वि्यादान सब दानो से बढ़ कर हैं कमी किसी कै
जीव को मत दुखाजौ । सब्र काम ठीक समय पर किया करो । स्वामी को सदैव
असच्च रखने का यज्ञ करो । विद्या मनुष्य की आंख खोर देती है । सृजन विप-
त्विमं भी सरीखे रहते ह, देखो जलाने पर कपूर और सी सुगन्धि देता है, तथा
सूयं रक्त ही उद्य होता है ओर रक्त ही असत होता है । ब्राह्मण, विद्वान्, कवि,
भित्र, पड़ोसी, राजा, गुरु, खी, इन से कमी विरोध मत करो । मण्डली मेँ बैठ-
कर किसी खादिष्ठ पदार्थं को अके मत्त खाओ । धिना जाने जख से कमी भवेद
मत करो । नख आदि को दौतसे कसी मत काटो । उत्तर की तरफ सिर करके
मत सोओो 1 विद्वान् को राजा से सी बड़ा समझो । एकता से' बहुत लाभ होते हैं
इस के लिये चेष्टा करो । प्राण जाने पर सी घर्म को सत छोड़ो ॥
यह प्रथम अध्याय का वर्णसमाझ्ाय नासक अथस श्रकरण समाप्त हुआ ॥
User Reviews
No Reviews | Add Yours...