प्रची से निकलता है सूरज | Prachi Se Nikalta Hai Suraj

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Prachi Se Nikalta Hai Suraj by नेमीचन्द्र जैन - Nemichandra Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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परिक्रमा उस दिन प्रातः आंच जरा जल्दी ही सुल गयी लया सिरहाने कोरईकैगहै और बाते करना चाह रहा है मै सभवत, उस समय अपनी दिनचर्या आरम्भ करने की चित्तवृत्ति मे था कि उसने मुझे आलो के इशारे से रोका; बोला-कभी वाचनगजा गये हो?” मैने कहा- व्ह मैं कस-से-कम बावन वार तो गया ही हां ' कभी उस विशाल सुर्ति को शिरोभाग ते चरण-तल तक ध्यान से देखा है? मैं चौका। यह आदमी इस तरह का श्रक्न क्यो कर रहा है? कौन है यह” मैने उत्तर दिया-दिक्िये, पहले तो अपना परिचय दीजिये ताकि मैं यह जान सकूँ कि आप कौन हैं और क्या चाहते है।* इस तरह पहेली बरूझने से तो कोई काम सरेगा नही। बोला-मैं शिल्पी हू सुर्तियाँ बनाता हूँ। धन या कीति की लालसा से नही, ससार-की-व्यास्या-समीक्षा के लिए। उसमे जो सार है उसे युगयुगो तक पावाण मे सुरक्षित करने के लिए दुम मुर्तिकार-और इतने सवेरे, यहां। मुझसे क्या वास्ता है तुम्हारा?” श्रं ही चला आया) मैने सोचा- आप वावनगजा कई बार गये हैं एक वार मेरे साथ भी चले और उस विशाल विग्रह की वन्दना मेरे साथ करे” मैने कहा-'रकिये। पेट मे कुछ डाल ले; फिर चलते हैं।' वोला-र्मं देव- दशन कै बिना कुछ नही लेता मैने सहज ही पृछ लिया-क्‍्या यह नियम जैनो की बपीती है? उन्हे ही इसे पालना चाहिये” क्या किसी महापुरुष के दरश्नि उदर-पोषण से कम महत्त्वपूर्ण है” क्या हमसे अपने जीवनादर्श को आहार था उपाहार से पहले अपनी याद मे नहीं डाल लेना चाहिये” प्राची से निकलता है सुरज १७




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