अश्क | Ashk

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Ashk  by उपेन्द्रनाथ अश्क - Upendranath Ashk

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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की और उन्हें प्रेमचंद और आचार्य महावीरभ्रसाद द्विवेदी के समकक्ष ला बंडाया। मित्रो ने लाख कहा कि उन दोनों महापुरुषों में से एक का असफल संपादन और दूसरे का असफल लेखन ही उन्होंने लिया है, पर अश्क ने अपना मजाक नही छोड़ा । उसने बार-वार उन्ह प्रेमचंद ओर आचायं द्विवेदी का उत्तराधिकारी घोषित किया । यहाँ तक कि उन्हें स्वयं इसका विश्वास हो गया । अश्क ने उनका नेतृत्व स्वीकार कर लिया और जब वे भाचारय॑ द्विवेदी के आसन पर बँठे अश्क को भरी मजलिस में कहते कि उसे कहानी की कोई समझ नहीं और जब वे उसे कहानी की कला और सौद्देश्यता, शहरी कहानियों की. प्रतिक्रियावादिता और देहाती कहानियों की प्रगतिशीलता (कि वे स्वयं देहाती कहानियां लिखते थे) पर भाषण देते तो वह उन्हें कभी न टोकता, वल्कि मित्रों में इस बात की आम चर्चा करता कि कहानी के गुणों की जो समझ इस आधुनिक एमभरु-विहीन आचायं द्विवेदी में है, वह किसी में नहीं । अश्क ने इस फृग्गे में इतनी हवा भरी, इतनी हवा भरी कि वह दानव-सरीखा साहित्य और पत्रकारिता के आकाश में गरजता मँडराने लगा । जाने कितनों को उसने डराया, कितनों को गरियाया और कितनों का अपमान किया, पर अश्क अपने मज़ाक से वाज नहीं आया । वह उस फुगे में ह्वा भरता गया । यहाँ तक कि एक दिन अपने में समा न पाने के कारण वह सहसा फटकर निर्जीव धरती पर आरहा । तव उससे निकली गलाजत से अश्क नख- से-शिख तक शरावोर हो गया ओर तमाशा देखते-देखते स्वयं तमाशा वन गया ] ऐसे में अश्क कभी आईना देखता है तो उसके सामने एक फक्कड, मन-मौजी यारवाश आदमी का चेहरा उभरता है ।...'मैं ठदरा अव्वल दजं का फक्कड , या हम तो यार, फक्कड़ आदमी हैं'...यह उसका तकिया कलाम रहा है। अश्क की फक्कड़ता और मन-मौजीपन में किसी को संदेह नहीं --उसकी पत्नी, उसके बच्चों, अथवा उसके मित्रों को 1. ..लेकिन अश्क जानता है कि यह उसका असली चेहरा नहीं है । यह उसने अपने पिता से उधार अथवा यों कहें कि उत्तराधिवार में ले लिया है। जब वह आईने में अपना यह चेहरा देखता है तो उसके सामने गले में कॉलर विहीन कमोज़ पहने, कमर में तहमद लगाये, बगल में पगड़ी दवाये एक गठे, मज़दूत बदन के व्यक्ति का, नुकीली नींबू-टिकाऊ मूंछों वाला, गोल, रौबीला चेहरा घूम जाता है--क्षण में जीने वाले, प्लानिंग से कोसों टूर भागने वाले, कौड़ी न रख कफ़न के लिए में परम विण्वास रखने ओौर घर एक तमाशा देखने वाले परम फक्कड़ और मनमौजी आदमी का चेहरा--यह भश्क के पिता कां चेहरा है और उसके लिए यह हमेशा आदशं रहा है। उसने इस चेहरे के कई कोण अपने उपन्यासों में उभारे हैं, पर वह जानता है कि वह कभी इस चेहरे के साथ पुरा न्याय नहीं कर सकेगा । वह यह भी जानता है कि वह स्वयं भी कभी उस आददां पर नहीं पहुँच पायेगा औौर न ही क्षण में जीने के उस दर्शन को अपना ` पायेगा 1 ः आत्म-कथ्य : 1




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