अष्टादशस्मृति | Ashtadshasamariti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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स्मृति: १ 3 भाषाटीकासमेता: । (३) शद्रोकी, बाक्षणोकी सेवा करना यही तवस्या ओर हिर्पकार्य उनकी विका है ॥ १५ ॥ मैंने यह धर्म का, ब्राह्मण, श्चत्रिय, वैश्य ओर शुद्र यह चारों वणे इस ध्मके तुखार चलनेपर इख काठ बहुतसा सन्मान प्राप्तकर परल्ोकमे श्रेष्ठ गतिको पावे ॥। १६ ॥ ये भ्यपेताः स्वधम परधर्मष्ववस्थिताः ॥ तेषां शस्तिकरो राा स्वगंलो$ महीयते ॥ १७ ॥ जो पूर्वोक्त जपने २ धर्मक व्यागक्र दूसरे धमेक। आश्रय कर्वे, राजा उनको दण्ड दैकर स्वर्मका भागी दोताहि ।। १५ ॥ आत्मीये संस्थितो धर्मे शद्रोऽपि स्वगमर्लुते ॥ परधर्मो भवेच्याज्यः सुरूपपरदारवत ॥ १८ ॥ अपने धर्ममें स्थित होकर शूद भी स्वर्ग प्राप करतहें, दूसरोंका धर्म सुन्दरी पराई ख्रीकी समान तजनेके योग्य है ॥ १८ ॥ ; वध्यो राज्ञास वे शरद्रो जपहोमपरश्च यः ॥ ` यतो राष्टस्य हंतासौ यथा वहैश्च वै जलम्‌ ॥ १९ ॥ जप, हाम इत्यादि त्राह्यणोंके उचित कमम रत टोनेसे सुद्रका राजा वध केरे, कारण कि जलधारा जिख प्रकारे अभिको.नष्ट करतीदै, उसी प्रकारसे यह जप होममे तत्पर हा सद्र सम्पूणं राज्यका नारा करतादै ॥ १९ ॥ प्रतिग्रहोऽध्यापने च तथाऽविक्रेयविक्रयः ॥ याज्यं चतुभिरप्येतेः क्षत्रषिट्पतनं स्म्रृतम्‌ ॥ २० ॥ दानटेना, पदाना, निषिद्ध -वस्तुका ग्वरीदना जौर वेचना वा यज्ञकराना इन चारों क्मोकि करनेसे क्षत्रिय और वैद्य पतित होतिहे ॥ २० 1 सयः पतति मसिन लाक्षया लवणन च ॥ च्यहण डादो भवति श्राह्मणः क्षीरविक्रयी ॥ २१ ॥ जाहमण मांस, ठाग्व और पढे बेंचनसे तत्काल पतित होना ओर दृधके बेचनेसे भी तीन दिनमें उुद्रकी समान होजाताहि ॥ २१ ॥ अब्रताश्वानघीयाना यत्र भेकष्यचरा द्रिजाः ॥ तंग्रामं दृडंयद्राना चौरभक्त- ददंडवत्‌ ॥ २२ ॥ दिद्द्धाज्पमविदांसो यषु राष्ट्रप भुंजत॥ ते 5घ्वनावष्टिमि- च्छंति महद्दा जायते मयमू ॥ २३ ॥ ब्रत और जप्ययनस सन्य बाह्मण जिस माममे भिक्षा मांगकर जीवन धारण करते राजा उस भ्रामको अर्थान्‌ उस अ्रामके अत्रत्‌ ओर निरभर त्राह्मणोंके पाउनेवाले नगरवासियोंको चोरो मात देनेवालेके दं डक तुस्य ८ अर्थात्‌ चौरकः पोपण करंनवाख्के दंडके तुल्य ) दंड देवै ॥ २२॥ जिस राञ्यमे पडितोंके भोगनयोग्य वस्तुको मृखं भोगतिहें, वहाँ अनावष्टि वा अन्य किसी श्रकारका महाभय उपस्थित होताहै ॥ २३ ॥ श दाहित: दासनसू ।. २ तेप राष्ट्रिय |




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