बांगला देश के सन्दर्भ में | Bangala Desha Ke Sandarbh Men

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Bangala  Desha Ke Sandarbh Men by विष्णुकान्त शास्त्री - Vishnukant Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ ३ बांगला देश के संदर्भ में ] भ्रवलम्बित नहीं था। इसका आधार जातिगत और भाषागत था। नीची श्रेणी मे उन मुसलमानों की गिनती होती थी जो मुलतः बंगाल के निवासीये ओर स्वभाषत: जिनकी मातृभाषा बंगला थी । ऊँची श्रेरी के मुसलमान वे माने. जाते थे जिनका दावा था कि वे अरब, ईरान या मध्य एशिया से आकर यहाँ बसे है । धमं भाषा होने के कारण अरबी का तथा नि: रितः और १८३६ ई० तक राजभाषा होने के कारण फारसीका सभी श्रेणियों के. मुसलमानों मे समादर था । किन्तु इन भाषाओं को बोल पाना या इनमें काम- काज कर पाना उंगलियों पर गिनने योग्य लोगों को छोड़ कर तथाकथित ऊँची श्रेणी के मुसलमानों के लिए भी संभव न था । झतः देनन्दिन व्यवहार एवं भावात्मक आदान-प्रदान के लिए विशेषत: मुसलमानों के उद्योग से अट्टा- रहवीं सदी में उर्दू का विकास तेजी से हुआ एवं दिल्ली, हैदराबाद, लखनऊ. झादि के मुस्लिम राज-दरबारों में उसकी कब्र बढ़ती चली गयी । बंगाल में मुशिदाबाद, ढाका भ्रादि के सामन्ती परिवारों में भी उर्दू को ही प्रतिष्ठा प्राप्त थी । श्रतः मुर्लिम-समाज के उच्चे वगं में प्रवेश पाने के लिए बंगाली मुसल- मान भी उदू मे बोलना, लिखना, पढना गौरवपूणं एवं ्रावदयक कर्तव्य सम~ भता था । इसीलिए नवाब अब्दुल लतीफ ने अपनी सोसाइटी में बंगला को. स्थान न देकर उर्दू को दिया था । विश्व इस्लाम के लघु रूप एवं भारतीय इस्लाम की चेतना भी उन्हें इसी की प्रेरणा देती थी कि मुसलमानों के संगठन के लिए क्षेत्रीय भाषाओं से भिन्न उर्दू का ही प्रयोग किया जाना चाहिए : एक और बात थी । मातृभाषा बंगला होते हुए भी बंगाी मुसलमानों को लगता था कि उसके गौरव में उनका अंग बहुत कम है । दौलत काजी,, आलाझोल और लालन फकीर को छोड़कर झाधुनिक युग के आरंभ तक बंगला भाषा और साहित्य की मर्यादा बढ़ाने में किसी श्रौर उल्लेख योग्य मुस्लिम कवि का योगदान नहीं था । इनमें भी दौलत काजी अर आलाश्रोल. पश्चिमी मुसलमान कवियों मौलाना दाऊद तथा मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित हिन्दू कथाधित प्रेमाख्यानक काव्य के अनुवादक हीये श्रौर लालन फकीर हिन्दू ही थे, जो बाद में सूफी हो गये थे । अतः बंगला साहित्य कट्टर मुसरूमानों की दृष्टि में हिन्दुओं का साहित्य था, जिसके दुष्प्रभाव से अपने को; अपने समाज को बचाना अच्छे मुसलमानों का कतंब्य था । किन्तु बच्चे तो १ दे० बदरुद्दीन उमरकृत पूर्वे बांगलार सांस्कृतिक संकट, नामक पुस्तकः का ऊनिश्च शतके “मुस्लिम शिक्षा ओ मातृभाषा चर्चा शीपंक. निबन्ध ।




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