विवेकानंद साहित्य जन्मशती संस्करण खंड -०१ | Vivekananda Sahitya Janmshati Sanskaran Khand-10

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अपने भुङ्‌ श्री रामङकप्य पर्महृ मँ जो दक्षिसेक्वर के पद्यान-मन्विर मे यूय और उपवे करे जे स्वामी डिवेकानम्द--उत दिनों के नरेम-को प्राचीन भर्मप्रमों का बहू सत्यापन प्राप्त हुया जिसकी माँम उसका हुवय आर बुद्धि करती रही थी। यहाँ बहू सत्य सपक्तस्थ था जिसका दूटा-फूटा भर्वन ही प्रथ कर पाले है। यहाँ एक ऐसा स्यक्ति था जिसके सिए समाभषि ही शान प्राप्त करने का सतत सावन थी। हर बटे चित अतक से एक कौ ओर दोसायसातन था । हर झस मतिचतन मूमिका से संगृद्दीठ शान की बाची से ध्यनित होता था। चमके शक्षिकट हर व्पक्तिको ईष्वर दर्सन की झकक मिछ जाती थी भौर सिप्य में मौ परम ज्ञान की मभौप्सा ज्र चदन के सगृ जग उस्तौ थी। किलु तथापि बे सम्पूर्ण अज्ञात रूप से ही पर्मप्रथों की जीवन्त प्रतिमूर्ति थे क्योकि उन्होंने जनम से किसीका कमी अप्पयत ही नहीं छिपा था ! अपने मुददेग शामकृप्ण परमहूस म बिवेकामन्द को जीवन की कुजी सिछ मयी थी । द्भव शिर मौ अपने भीगत-कार्म के निमित्त उनकी वैमारी पूरी मही हो पापी थी। उनके मुर्देम का जीवम एक ब्यक्तित्स जिस मिराट् परिपूर्णता का अश्पफासिक एव प्रपर प्रतीक था उसकी परिस्याप्ति को आएमसात करने के सिए कम्पाइुमारी व हिमारूप ठफ समप्र भारत का प्रमस करना पर्वण साथ-सत जिद्धाना भौर जन-साधारण स सम भाग सै मिसता शगसे पिला प्न करमा मौर सुकरो एधा पता सबक साप जीवन बिताना और साएत के अतौत एवं बर्तमान का पपाष परिचय प्राप्त करना मगिवाय था। इस प्रकार जिवेकानस्द की झतियां का सयीठ प्राप्त गुड ठबा सातृमूमि--इत कौम स्वरमहरिपा म निमित हुमा है। उनके पास वेने पम्प यहीं निधि है। इग्दास उनको वे उपकरण मिस जितं विस्व-विडाए को दूर करनेवाल भआाप्या शिव बरदान की विदस्पकरणी उन्होंने प्रस्तुत कौ। १९ सितबर, १८९१ ई से ४ जुलाई, १९ २६ तक कार्य की अस्पावधि मे मारत मे भपनी तथा विश्व कौ भनति ह तय प्रदर्मन क तिर्‌ उनके हाथा गे जा दौप प्रम्बसलित एवं अ्रधिप्ठित कराया उसके भीतर प ही तीन दीएशिस्पाएँ प्राउम्बक्त हैं। हममस से शृ णमे साप भी हैं जो इसी पकाप आर अपने पीछे एड़ी गयी उतकी इठिया के लिंगू उसकी यग्म दनराजी पुस्वनूबि को तथा जिन अदूस्प घाक्तिया से उहू बियय से भेजा उनको पस्य बद्धन दै ओर विगबास करत है उन मदन्‌ सश्यशी प्यापकता एड सार एसा का बर् जानते बे हम अभी वड़ असमर्थ रद है। के जुलाएँ, है > “मपिती निवेदिता




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