सत्यम्रित प्रवाह | Satyamrit Pravah

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Satyamrit Pravah by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ण | संग्रह है और 'सदयधमे प्ुक्तावछी' में विनय पद हैं जो विभिन्‍न राग रागनियों में रचित हैं। पंडितजी की भारत प्रसिद्ध प्रार्थना ओम्‌ जय जगदीश हरे” इसी पुश्तक में है जो उनकी प्रारंभिक काठ की रचना हे और धार्मिक ( आध्यात्मिक ) वारहमास का वर्णन तथा एक रेख की गजल भी उसी मे हे जिसमे हिन्दी, उदू, पंजाबी और अमेजी शब्दौ का चमर्कारिक चयन हे । इन सबसे पंडितजी ॐ काठ्य-वेभव का पता भी प्रकार छगता हे । पंडितजी की कीर्ति-कखा-प्रसार का पता इस वात से भी लगता है कि सन्‌ १९४६ में पंजाब प्रादेशिक हिन्दी साहित्य संगम के मंत्री श्री मोहनलाछ मैत्रेय महो दय; पं डितजी के जन्मस्थान फुल्लौर में उनके स्मारक निर्माण के सिलसिले में मेरे पास दिल्ली आये ( उन दिनों में दिल्‍ली में था ) और पंडितजी का कुछ साहित्य जो मेरे पास संग्रहीत था तत्काछी न राष्ट्रपति बायू राजेन्द्रप्रसादजी को दिखलाने के छिये ले गये थे जिसे वापस छाने के छिए मुके जाना पड़ा था । तब राष्ट्रपतिजी के प्रेस सचिव श्री राजेन्द्रालजी हांडा ने मुभे सुनाया था कि राष्टूपतिजी ने प॑० श्रद्धारासजी के प्रति काफी श्रद्धाभाव प्रदर्शित किया क्योंकि उन्होने पंडितजी के विषय मं महामना मदनमोहन मालवीयजी से बहुत कुछ सुन रखा था । पुस्तक सम्पादन के सम्बन्ध में यद्यषि पुस्तक की भाषा संस्कृत-प्रधान प्रोट्‌ हिन्दी है किन्तु उसमं उस समय के कुछ प्रयोग ऐसे थे जो आजकछ प्रचलित नहीं हैं। रन्हें मूठ लेखक के साव और शेढी को ज्यों की त्यों अक्षुण्ण रखते हुए, बदछकर-समग़ालुकूढ किया गया है। जेसे-कहिता; रहिता की जगह कहता; रहता , होवेगा, जावेगा की जगह होगा, जायगा ; हारा की जगह वाला तथा लों की जगह तक। जेसे-आजर्डोन आजतक ! रितु किसी २ जगह वेसा का वेसा प्रयोग भी रहे दिया




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