राजस्थान - साहित्य परम्परा और प्रगति | Rajasthan - Sahity Parampara Aur Pragati
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
76
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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संबंध था । श्रपश्रंश पर एक मात्र श्राभीरों का श्रधिकार था, इस बात का
खंडन ता नमिसाधु के प्रमाण पर भी किया जा सकता है क्योकि उन्होंने
श्राभीरो को ग्रपभ्रंदा के भेदों में से एक कहा है।”
प्रतिष्ठा-काल
नमिसाधु, वाग्भट्ट ब्रादि के प्रमाणों के झाधार पर यहू कहा जा सकता
है कि ११ वीं शताब्दी के झासपास भ्रपश्रंशदेशभाषा की प्रतिष्ठा पा चुकी
थी । साहित्यरूढ् प्रपरंश के स्थिरीकेरण के पर्चात् पुनः लोक बोलियों के
उदय के लक्षण दिखाई पड़ने लगे । यह् क्रिया लगभग ईसा की वारहुवीं रती
में श्रारंभ हो गई । कहा जाता है कि हेमचन्द्र तक श्राते-ग्राते ग्रपभ्रंर केवल
पंडित वं की भाषा रह गई । इससे यह् निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि
अपभ्रंश देशभाषा अवरय थी, किन्तु हमेशा नहीं ।
्मपञ्ेशके दो प्रमुख रूप
जिस समय अ्रपश्रंश सारे देर को भाषा थी उस समय उसके परिचमी
ग्रौरपूर्वी, दोरूपथे। तगारेनेपूर्वीश्रपश्रंशकाभ्राधार कण्ड् प्रौर सरह
का दोहा-कोद माना है । मात्रा की दृष्टि से यह सामग्री बहुत कम है श्रौर
इसमे परिचमी श्रपश्रंदा का निर्वाह पर्याप्त रूप में मिलता है, फिर भी उसमें
मागधी की कुछ ऐसी विशेषताएँ मिलती हैं जो उसके साहित्यिक पद की
पुष्टि करती हैं । मध्ययुगीन हिन्दी के स्वरूप सें पछांह श्रौर पूरब का भेद
पश्चिमी भ्रौर पूर्वी श्रपभ्रंदा के भेद को स्पष्ट कर देता है ।
पश्च श्रौर श्राधुनिक भारतीय भाषाणं
. बारहवीं दाताब्दी के बादसे ही करीब २०० वषं का समय भारतीय
ग्राय-भाषाओओं का संक्रास्तिकाल कहा जाता है। उस समय तक विभिन्न
. प्रान्तों की झाधुनिक भाषाओं का स्वतंत्र साहित्य नहीं मिलता । इस समय
साहित्य की भाषा श्रपभ्रंश थी श्रौर लोक बोलियों का प्रादुर्भाव हो चला
था । उन बोलियों के मिश्रण से 'श्रपश्चश्चाभास'' जन भाषाभ्रों का साहित्य
१. देखिये--नामवरसिं : हिन्दी के विकास मे अपन्न श का योग, प० २५
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