समयसार अनुशीलन | Samayasar Anushilan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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फ कलश जिस समयसाररूप भगवान आत्मा को नमस्कार किया गया है, वह सर्वज्ञपर्याय सहित भगवान आत्मा की बात नहीं है, अपितु सर्वज्स्वभावी त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा की बात है । यहाँ सर्वज्स्वभाव की बात करके सर्वज्ञाभाववादियों का निराकरण भी कर दिया गया है । यहाँ एक प्रश्न फिर उपस्थित होता है कि ऐसा भगवान आत्मा जाना जा सकता है या नहीं ? सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान में तो जाना ही जाता है, यहाँ उनके जानने की बात नहीं है । यहाँ तो यह बात है कि हम उसे जान सकते हैं या नहीं ? यदि हम उसे जान सकते हैं तो किसप्रकार ? इसके उत्तर मे कहा गया है कि “स्वानुभूत्या चकासते' । तात्पर्य यह है कि भगवान आत्मा स्वनुभूति के द्वारा जाना जाता है । इस कथन से उन लोगो का निराकरण हो गया, जो ऐसा मानते हैं कि भगवान आत्मा जाना ही नहीं जा सकता है । उन लोगों का भी निराकरण हो गया, जो स्वानुभूति के अतिरिक्त अन्य उपायों से भगवान आत्मा को जानना मानते है या जानना चाहते है । तात्पर्य यह किं भगवान आत्मा व्रत-उपवासादि क्रियाकाण्ड से पकडने मे अने वाला नही है, कोरी बातो से भी कार्य होनेवाला नहीं है । देव-शास्त्र-गुरु भी हमे आत्मा की बात बता तो सकते हैं, पर वे आत्मा का अनुभव नहीं करा सकते, आत्मा का दर्शन नहीं करा सकते । आत्मा का दर्शन तो स्वानुभूति के माध्यम से स्वय ही करना होगा । भगवान आत्मा स्वानुभवगम्य है । तात्पर्य यह है कि वह इन्द्रियगम्य नहीं है, अनुमानगम्य भी नहीं है । ४९वीं गाथा में इसे और अधिक विस्तार से स्पष्ट किया जायेगा, अत यहाँ अधिक विस्तार से चर्चा करना अभीष्ट नहीं है, पर यहाँ इतना निश्चित है कि यह अतीन्द्रिय महापदार्थ, अतीन्द्रिय निर्विकल्प अनुभवज्ञान का ही विषय है ।




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