हिंदी साहित्य का बृहत इतिहास | Hindi Sahity Ka Brihat Itihas

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Hindi Sahity Ka Brihat Itihas by राहुल संकृत्यायन - Rahul Sankrityayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( २५) कहें तो कुछ श्रत्युक्ति न दोगी। लोकबिश्वाल, लोकपरपरा, लोकप्था, शोकषम, लॉकबीवन झादि विषयों का सजीव स्विभल इठ कवि ने अपने पंथ में किया हे | वुलशीदास ने लॉोकर्सस्कृति के तत्वों को कुछ संस्कूत तथा परिष्कृत रूप मँ प्रण॒ किया हैं। गोस्वामी थी ने शिष्ट साहित्य तथा कोकसाहित्य की परंपराधों की गंगाजमुनी छुटा दिखलाई है । यद्यपि लोकसाहित्य का प्रभाव छने हुए. रूप में इनकी रचमाओों में दिखाई पढ़ता है. फिर मी शोइर आदि लोकगीती के छंदों में रामचरित की ब्यंजना करके इन्होंने अपने लोकानुराग का अन्छ्ा परिचय दिया है । उपयुक्त विवेचन से यदद स्पष्ट प्रतीत दोता है. कि हिंदी साहित्य के निर्माण में लोकलादिस्य ने झाघारशिला का कार्य किया है । दिंदी के संतसाहित्य में लोक- साहित्य के तत्व प्रचुर परिमाण में पाए थाते हैं । शत: कुछ विद्यानों के मतानुसार इन्हें लोकसाहित्य की भेशों में रखा था सकता है । दा इजारीप्रसाद दवंवेदी ने इस विषय का गंभीर बिवेखन करते हुए लिखा है : पुन मध्य युग के संतों का लिखा दुध्या साहिस्य--कइं बार हो यह लिखा मीं नहीं गया, कबीर ने तो 'मति कागद' छुआ हो नहीं या-- लॉकसाहित्य कहा था सकता दे या नहीं 7 क्यों कर्बीर की रचना लॉकलादिस्य नहीं दे सच पूछा जाय तो कुछ थोड़े से झपवादों को छोड़कर मध्ययुग के रुंपूसा देशी भाषा के साहित्य को लॉक दिव्य के झंतगंस घछीटकर लाया था सकता दे । शत: शाचारय हिवेदी थी के श्रनुसार दिंदी के संपूसं संतसादित्य को लोकसादित्य कहा था सकता है । अन्य विज्ानों ने भी दिवेदी थी के इस मत का समधन किया है। हमारी छंमति में इिंदी शाहित्य के वीरगायाकाल तथा मक्तिकाल की झषिकांश रचनाओं को लोकलाहित्य में झतिमुक्त किया था सकता है ।' ऐसी परिस्थिति में हिंदी साहित्य के इतिहास के सम्यक्‌ झनुशीलन के लिये लॉकतादित्य की एश्रभूमि हे परिचित होना एक आवश्यक कतंब्य दो लाता है। झतः हिंदी साहित्य के इतिदाहकारों का यद धर्म है कि वे लोकसाहिस्य के परिप्रें (पर्सेक्टिव) में दिंदो साहित्य के झनुशीलन तथा शोध का प्रयास करें | यद झार्मत परितोष का विषय दे कि “हिंदी साहित्य के बदत्‌ु इतिहास' के झायोजको ने उपयुक्त मोलिक महत्व को समका और उनकी सुषम इहि लोक- साहित्य की मदचा की छोर शाह दुरं) समवतः इस दिशा में यह सर्वप्रथम प्रयास है । बेसा ऊार उल्लेख किया था शुका दे, काया रामचंद् शुदू ने लोकगीतों वथा जोकसाहित्व का मूक्य झपनीं तंत्वमेदिनी प्रतिमा के दारा बहुत पदले से हो १ (जलदः, वेवं १, संक !, पुर कहें




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