मनुजता का गायक | Manujata Ka Gayak

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Manujata Ka Gayak by मधुज्वाल - Madhujwal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मजुजता का गायक १७ बुद्धि जितना द्यी श्रयत करती डे, उकाव उतना ही बढ़ता £. मोह उतना ही वदता है; सारा जीवन ही उछमा हुआ दृगोचर होता दै; लेकिन वह निराश नहीं हो जाता। वह्द मागे॑ खोजता है ओर उसे वहं मागं दीखता दै उस महाकाव्य में जिसे 'महा- प्राण ने' इस विशाल सृष्टि के रूप में लिख रखा दे ओर जिसके लिखे जाने का सिठसिला एक क्षण भी रुका नहीं ; सकता नहीं! उस 'महाकाव्य' में ही कवि को अस्त खोज निकालने की आशा दीखती दै । वह कहता है-- निर्निमेप दग तेरी दुवि पर कब से रूप सुधा का प्यासा तुम पर ही तो टिकी हुई है निरवलंब जीवन की आशा सष्टि के रूप में जो 'महदाकाव्य' कथि की आंखों के सामने है; उसे वह 'मद्दाप्राण' की एक यूल्द मात्र मानता है। यह वृन्द ही उसकी पकड़ मे आ सकती है ; उसकी अपनी सीमा के रहते हुए मी महाप्राण को पाने का माध्यम वन सक्ती हं ! प्रम्न यट है कि कवि उसे माध्यम क्रिस प्रकार वनाये ? इस प्रश्न का उत्तर बह 'निरवलस्व' शब्द के द्वारा देता दै। बुद्धि से उपजनेाि सव त्का को त्याग कर वह्‌ पुण समर्पण के भाव से महाप्राण के सामने जाता दै सवथा निरवटम्ब' होकर । प्या वह ननिर- वटम्बता' ही गोस्वामी तुलसीदास के समत्त काव्यों की मूछ भावना नदीं वन गयी थो } क्या यह्‌ (निरचट्वताः दी छष्ण कै प्रति गाये गये घूर ओर मीराके पदों मे व्यक्त नदी हद थी




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