नरसीजी रो माहेरो | Narsiji Ro Mahero
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
242
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)११
गोस्वामीजी ने मीराँ के पत्र के प्रत्युत्तर में इस तरह लिखा--
“जिनके प्रिय न राम वैदेहि।
तजिये ताहि कोटी बरी सम, जद्यपि परम सनेही ॥।
तात मात भ्राता सुत पति हित, इन समान कोउ नाहीं ।
रघुपति विमुख जानि लघुतृण इव, तजन सुकृत उराहीं ॥
ग्रंजन कहा श्रांखि जेहि फूट, बहु तक कहउ कहाँली 1८7”!
कहते हैं कि इस मार्गदर्शन से मीराँ का मन. हढ बना श्रौर उसने मेवाड़ का
त्याग कर दिया । #
इस प्रकार एक रोचक कहानी वनाई गई है । किन्तु एेतिहासिक कालक्रम
से देखा जाय तो मीराँ ग्रौर तुलसीदास के वीच पत्र-व्यवहार श्रसंभवित था ।
क्यों कि गुसाई तुलसीदास सन् १५३३ (संत्रत १४८९) में . पैदा हुए श्रौर यदि
मीराँबाई, के देहान्त का समय सच १४४६ (सवत १६०२) में माना जाय तो
उस समय गुसांईजी की झायु चौदह वर्ष की होती है ।* यह श्रायु गुँसांईजी की
भक्ति श्र प्रसिद्धि की किस प्रकार मानी जाय ? तुलसीदासजी के जन्म के
प्रारसिक वर्षों में तो मीराँ ने मेवाइ का त्याग भी कर दिया था । फिर
तुलसीदासजी को पत्र क्यों श्रौर किस तरह लिखा. जा सकता है ?
उपरोक्त कारणों से मीराँ श्रौर तुलसीदास के बीच पत्र-ब्यौहार संभवित
नहीं था, ऐसा श्रनेक विद्वानों का मत उचित ही है। मीराँ के पत्रवाला पद
कृत्रिम है । तुलसीदासजी के प्रत्युत्तर रूप में जो पद बताया जाता है उसमें कहीं -
पर भी . मीराँ का नामोल्लेख नहीं है । उक्त पद साशान्य भाव से प्रभु भक्ति हेतु
लिखा गया पद है ।
' (३) नरसी मेहता श्रौर सीराँ :-- कुछ समय से एक नयी जनश्रुति का
जन्म हुमा है। इस श्रुति के श्रनुसार नरसी मेहता श्रौर मीराँबाई के बीच
पत्र-ब्यौहार होने की घटना वर्शित हो रहो है ।
१. तुलसीदास (जेठालाल त्रिवेदी) पृ० ४४ ।
२. 'मीराँबाई की झाव्दावली' (बेल वेडियर प्रेस : प्रयाग) 1
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