आधुनिक ब्रज भाषा - काव्य | Aadhunik Brajbhasha Kavya

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पं. रामशंकर शुक्ल ' रसाल ' - Pt. Ramshankar Shukl ' Rasal '

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शुकदेव बिहारी मिश्र - Shukdev Bihari Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १४ ) -रखवाड़ी, प्रयोग पाये जाते हैं । बिजावर के राज-कवि “बिहारी”, सीतामऊ- नरेश, मकाल[वाड़-नरेश, रीवाँ के रामाधीन श्रादि की भाषा में इसके उदाहरण श्रधिक मिलते हैं । स्वतन्त्र कृबि--इनमें दो मुख्य दल हैं। एक दल तो. रत्नाकरः रखाल', डाक्टर चिपाठी, श्रीघरपाठक आदि नजीन-शिच्ु दास सुकवियों का है, जिसकी भाषा साहित्यिक सौश्व-समन्वित श्रौर समुस्कष्ट रहती हैं “दूसरा दल उन सुकवियों का हैं जो नवशिक्ञा-दीक्षा-दीक्षित न होकर प्राचीन पंडिताऊ पद्धति से पढ़े श्रौर कढ़े हुए हैं । इतलिए इस दल के कवियों की भाषा बहुत कुछ प्राचीन-शैली के ही साँचेमे टली सी रदती हैं| इम दोनों दलों के बीच में एक कवि-दल ऐसा भी है जिसमें दोॉनि दलों की विशेषताएंँ श्रांशिक रूप में मिलती हैं । व्रजभाषा-चुत्र में किसी श्रच्छे व्याकरण के न होने से प्रायः क्रियाश्यों शरोर कारकों के रूपों श्और प्रयोगों में बहुत-कुछ गड़बड़ी मिलती है | क्रियाश्नों में झनिश्चित बहुरूपता विशेष खुप से देखी जातौ है । उदाह- णाथ 'देना' क्रिया के सामान्यभूत काल में दीन्हों, दीन्हों, दयों, दीनों दिया श्रादि रूप स्वतन्त्रता से चल रहे हैं । ऐसी स्वच्छुन्दवा श्रौर श्रनि श्चित बहुरूपता 'रत्नाकर' श्रादि सुकवियो की भाषाओं में नहीं मिलती | इसी प्रकार कारकों के श्रयोगों में भी बड़ी श्रव्यवस्था सी फैली इई है कत्ता का “ने चिह्न, जिसका प्रयोग प्रायः शुद्ध साहिस्यिक-बजभापा में कदापि नहीं होता श्रव प्रायः स्वच्छुन्दता से प्रयुक्त होता ३ै। इसी प्रकार म॑ के को”, तृतीया के 'सौं', चतुर्थ के “को घड्टी के ष्कः शरोर श्रवि- करण के 'मैं' के स्थानों पर कवि लोग खड़ी बोली के प्रचलित रूप इच्छानुसार प्रयुक्त करते हैं । व्याकरण व्यवस्था के लिए “रत्नाकर” जैसे सकवियों का कार्य वस्तुत सराइनीय है । इसी के साथ ही संस्कृत श्रौर फारसी श्रादि के शब्दों के नजभाषा-पद्धति के.श्रनुसार देशज सूप न देकर उनके तत्छम या मूल स्पोमे ही युक्त करने की अभिश्चि प्रायः कवियों मे देखी जाती हे




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