आधुनिक ब्रज भाषा - काव्य | Aadhunik Brajbhasha Kavya
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
पं. रामशंकर शुक्ल ' रसाल ' - Pt. Ramshankar Shukl ' Rasal ',
शुकदेव बिहारी मिश्र - Shukdev Bihari Mishra
शुकदेव बिहारी मिश्र - Shukdev Bihari Mishra
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
195
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
पं. रामशंकर शुक्ल ' रसाल ' - Pt. Ramshankar Shukl ' Rasal '
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शुकदेव बिहारी मिश्र - Shukdev Bihari Mishra
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १४ )
-रखवाड़ी, प्रयोग पाये जाते हैं । बिजावर के राज-कवि “बिहारी”, सीतामऊ-
नरेश, मकाल[वाड़-नरेश, रीवाँ के रामाधीन श्रादि की भाषा में इसके
उदाहरण श्रधिक मिलते हैं ।
स्वतन्त्र कृबि--इनमें दो मुख्य दल हैं। एक दल तो. रत्नाकरः
रखाल', डाक्टर चिपाठी, श्रीघरपाठक आदि नजीन-शिच्ु दास सुकवियों
का है, जिसकी भाषा साहित्यिक सौश्व-समन्वित श्रौर समुस्कष्ट रहती हैं
“दूसरा दल उन सुकवियों का हैं जो नवशिक्ञा-दीक्षा-दीक्षित न होकर
प्राचीन पंडिताऊ पद्धति से पढ़े श्रौर कढ़े हुए हैं । इतलिए इस दल के
कवियों की भाषा बहुत कुछ प्राचीन-शैली के ही साँचेमे टली सी रदती
हैं| इम दोनों दलों के बीच में एक कवि-दल ऐसा भी है जिसमें दोॉनि
दलों की विशेषताएंँ श्रांशिक रूप में मिलती हैं ।
व्रजभाषा-चुत्र में किसी श्रच्छे व्याकरण के न होने से प्रायः क्रियाश्यों
शरोर कारकों के रूपों श्और प्रयोगों में बहुत-कुछ गड़बड़ी मिलती है |
क्रियाश्नों में झनिश्चित बहुरूपता विशेष खुप से देखी जातौ है । उदाह-
णाथ 'देना' क्रिया के सामान्यभूत काल में दीन्हों, दीन्हों, दयों, दीनों
दिया श्रादि रूप स्वतन्त्रता से चल रहे हैं । ऐसी स्वच्छुन्दवा श्रौर श्रनि
श्चित बहुरूपता 'रत्नाकर' श्रादि सुकवियो की भाषाओं में नहीं मिलती |
इसी प्रकार कारकों के श्रयोगों में भी बड़ी श्रव्यवस्था सी फैली इई है
कत्ता का “ने चिह्न, जिसका प्रयोग प्रायः शुद्ध साहिस्यिक-बजभापा में
कदापि नहीं होता श्रव प्रायः स्वच्छुन्दता से प्रयुक्त होता ३ै। इसी प्रकार
म॑ के को”, तृतीया के 'सौं', चतुर्थ के “को घड्टी के ष्कः शरोर श्रवि-
करण के 'मैं' के स्थानों पर कवि लोग खड़ी बोली के प्रचलित रूप
इच्छानुसार प्रयुक्त करते हैं ।
व्याकरण व्यवस्था के लिए “रत्नाकर” जैसे सकवियों का कार्य वस्तुत
सराइनीय है । इसी के साथ ही संस्कृत श्रौर फारसी श्रादि के शब्दों के
नजभाषा-पद्धति के.श्रनुसार देशज सूप न देकर उनके तत्छम या मूल
स्पोमे ही युक्त करने की अभिश्चि प्रायः कवियों मे देखी जाती हे
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