महर्षि सुकरात | Maharshi Sukarat

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Maharshi Sukarat by वेणीप्रसाद- Veniprasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ५ ) राजकत्ता श्रौर राजनियम फा सारे यूरोपवासी श्रादशै मानते थे । राज्य के शासन का भार एक साधारण समा के श्रि. कार मे था । प्रत्येक नागरिक इस सभा का समभाखद दो सकता था, केवल शन्तं यही थो कि बह किसी कारण से श्रयोग्य न उहराया गया हा । हरएक सभासद को सभा मे हाजिर रदना भी कानून के श्रनुख्ार श्रावश्यक था । यदहं प्रतिनिधि चुनने की चाल न थी श्रौर किसी मत्रिमंडल का संगठन न था । राजसभा के सारे सभासद राज्य काखव प्रबंध श्राप दी करते थे । किसी खास मनुष्य पर कोई बड़ी जवावदेही नहीं रदती थो । इससे एक यदह लाभ बडा भारी था कि प्रत्येक नगरनिवासी का राज-काज से संवंध पड़ता श्रौर यों सबका सददज दी में राजक्ाज की शिक्षा भी मिल जाती तथा दर एक झादमी अपने को राज्य के भारी से भारी मामले का प्रबंधकर्ता ्ौर उत्तरदाता समझता था । सभा मे बेठे हुए, पा्लमिट के मेत्ररों की तरदद, उसे अपने राज्यप्रबंध, नियम, कानून, विदेशी राज्य से संबंध, मैत्रो, शत्रुता, साम, दाम, दंड-भेद श्रादि प्रभो पर विचार करना पड़ता, अपना विचार प्रगट करना तथा दूसरों की दललीलां तथा तर्क॑-वितक में स्वयं भाग लेना पढ़ता था । कभी एक तरफवाले कोई बड़ी शानदार वक्ता देते त दूसरे प्तवाले उसके बाल की खाल उड़ाकर उसकी मीमांसा की जड़ उखाड़ देते थे । देने श्रार से खत्र सरगरमी से बहस चलती थो । सदस्यों




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