जैनामृत बोध माला | Jainamrit Subodh Sangrah

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Jainamrit Subodh Sangrah by

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ७ ] प्रचल ताप जग मांही हो, प्रभु विपय कपाय मिटाववा काद, शीतल श्त वेन । ध्यावे जो शद्ध भवै दो, नरी श्रावे ्रारत श्रासनी कादि, पावे शिव सुख चेन ॥ चं० ॥२) दास श्ररज श्रचधारी दो, विचारी दिरुद्‌ जिनेश्वर कादि, तारो प्रथु रपाल । वार वार क्या कटिये दो, किम किन कयो चित्त दाससखु काद करुणावत दयाल ॥ च० ॥४॥ जिम तुम दोय चड्ाई दो, भलाई कीजे दम थकी कांइ, मद्धिर कयो महाराज । नेह नजर निहो दो, परथुपालो पूरन भीतडी काद, गिरा गरीव निवाज ॥ च०।५] भश खहायफ नायक दो, प्रभु घायक कम महावलौ काद्‌, दायक्र शिव सुख सार । करुणा सागर नागर दो, प्रभु गुण रतनाकर जग गुरु कां, कीजे भष जल पार ॥ चं० ॥1द॥ महासेन चप नन्द दो, खख कन्दा लदमा राणी का काद, मन मोहन गुणवत 1 ्रमीरिखने तारो दो, उवारो दुख सागर थकी कांइ, भय भजन भगवन्त ॥ च० 11७} भकु &. आओ सुविधिनाथजी का स्तवने । दे शी-मालि जिन बाल व्रह्मचारी । ( लावर्ण। के राग मेँ ) खुविधि जिन समरो नरनारी, मिथ्या देव नेक जगत मेँ जारो टःरवकारी ॥ तेर ॥




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