सूरदास वविध संधर्भो में | Surdas Vividh Sandharbho Mai

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Surdas Vividh Sandharbho Mai by अज्ञात - Unknown

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अज्ञात - Unknown

Add Infomation AboutUnknown

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
सूरदासके निम्नलिखित श्रन्तःसाध्य सै भौ उनकी जन्म सै ही चक्षुविहीनता का. पता चलता है - विप्रः खुदामा क्रियौ अजञाची,. प्रीति पुरातन जानि। सूरदास ` सौः ' कहा 'निहोरी, नेननि ह की हानि।॥ . ,. अङ > उ ~“ ` सुर चूर, आँधरौ, मैं द्वार परयो गाङ॥ सूरदास के प्रारस्मिक जीवन के सम्बन्ध मेँ अंतःसाक्ष्य एवं चौरासी वार्ता में कुछ भी उल्लेख नहीं है । भाव -प्रकाश से ज्ञात होता है कि दिल्‍ली के पास सीहीमे सूरदास काजन्महुभ्राथा । छः वषेकी ग्रायु तक ये माता पिता के साथ रहँ 1 उसके वाद गृह त्याग कर सीही से चार कोस 'दुर'एक ग्राम में चले गये । यहाँ ये ्रपनी.श्नायु के श्रठारह्‌ वषं तक रहे । इन्होंने यहाँ जमींदार की खोई हुई गायों; का पता बता दिया । धीरे धीरे शकुन विद्या के श्रच्छे जानकार के रूप में इनकी ख्याति ` फेल गई। लोग इनपर श्रद्धा करने लगे, इनके सेवक हो गये और इन्हें स्वामीजी कहने लगे । इन्हें भेंट भी चढ़ने लगी । एक दिन इन्हें बोध हुभ्रा कि फिर ये बंधन में बँध गये हैं । वस, सब कुछ छोड़कर गौघाट में झाकर स्थायी रूप से रहने लगे एवं कृष्ण -लीला मे रम गयं । सूरदास गऊघाट पर रहकर भजन गते थे । एक .वार वल्लभाचायं श्रड़ैल से ब्रज जाते हुए गऊघाट पर रके! यहाँ वै सूरदास से मि .ओर उन्हें कुछगानेको कहा । सुरदासने “प्रभु हां सव पतितन कौ टीकौ । ओर पतित सव दिवस चारिकं हुँ तौ जनमत दही कौ ।“ गाकर सुनाया । इस पर वल्लभाचार्य ने कहा कि सुर होकर ऐसे घिधियाते क्यों हो ? कुछ भंगवद-लीला गान करो । सुर के यह्‌ कहने पर कि भगवद-लीला का उन्हें ज्ञान नहीं है, वल्लभाचाये ने उन्हें श्रपने सम्प्रदाय की नाम एवं समपर्ण दीक्षा दी और श्रीमदुभागवत के दशम स्कंध की .श्रनुक्रमणिका सुनाई । इस प्रकार वे सम्प्रदाय में दीक्षित होकर श्राचाये कै श्रादेश पर गोवर्द्धन भ्राये ओर श्रीनाथजी के मंदिर में लीला - गान करने लगे । उनका शेष जीवन यहीं कीर्तन करते बीता - नंद ज्‌! मेरे मन श्रानेंद भयौ, सुनि गोवद्ध॑न तैँ श्रायौ” । । ' “वल्लभ दिग्विजय' के श्रनुसंधान के श्रनुसार सुरदास का जनम संवत्‌ १५३५ है और ३२ वर्ष की यु में ये आ्रांचार्य की शरण में श्राये थे । श्रतः इनका शरणागततिकाल सं० १५६७ सिद्ध होता है । चौरासी वार्ता में *भी ऐसा ही उल्लेख है श्रीनाथजी के मंदिर - निर्माण - काल श्रादि प्रमाणों से भी यही संवत्‌ निश्चित होता है.। हिन्दी के भ्रधिकांश विद्वान्‌ भी इससे सहमत हैं । ..... .सुरदास की निधन -तिथि के संबंध में मतभेद है । चौरासी वैष्णवों की वार्ता के श्रनुसार सुरदास को श्रपने भ्रस्त. समय का श्राभास मिल गया था, म्रतः वे गोवद्ध॑न से अपने निवास - स्थान पारसौली भ्रा गये ओर श्रीनाथजी, वल्लभाचायं, विदलनाथ का स्मरण करने लगे । विदुलनाथ को जव मालूम पड़ा कि वे पारसौली गये हैं तो वे समझ गये कि श्रव उनका श्रन्तिम समय निकट भ्रा गया है । उन्होने कहा कि पुष्टिमार्ग का जहाज जा रहा है, जिसको जो लेगा है, ले लो । वे शिष्यों सहित सुर के निकट पहुँचे । सूरदास उनकी बाट जोह रहे थे। वे “देखौ देखौ जू हरि को एक सुभाई” के वाद “खंज॑न सैन रूप रस माते गाने लगे भौर गाते गाते उनके प्राण कृष्ण में लीन हो गये 1 प्रधिकांण विद्वान्‌ .सं० १६४० को सूरदास की निधन -तिथि मानते हैँ! इस दृष्टि से उनको १०५ वर्षो की दीर्घायु मिली जिसको समपणं -भाव से आराध्य के लीलाः-गान में व्यतीत कर उन्होने भवतो को ओर हिन्दी के भक्ति -काव्य को सुधासिक्त कर दिया! ` ©




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now