छठवाँ दशक | Chhathawan Dashak

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Chhathawan Dashak by विजय देव नारायण - Vijay Dev Narayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ / छठवाँ दशक क्यों किं उनके पास स्वयम्‌ एसा कुछ नहीं था जिससे वे पुरानी संस्कृति को परिमाजित करके अपने हित में प्रयुक्त करने में सफल होते । फलत; उस जबरदस्त एकाधिकार का जन्म हुआ जिसका ऊपर वर्णन किया गया है । एगेत्स ने जर्मन-रोम-संघषे ओर यूरोपीय सामन्तवादी संस्कृति की जो व्याख्या की है, भर बर्बरता के उत्थान का जो ऐतिहासिक सिद्धान्त प्रति- पादित क्रिया है, वह बहुत कुछ अरब-ईरान-संघर्ष, इस्लामी संस्कृति और अरबों के उत्थान में भी दर्शित होता है । कुछ अर्थों में तो हम यह भी कह सकते हैं कि इस्लाम-पुर्वं अरब जर्मनों से कहीं अधिक बर्बरता की अवस्था में थे । मैं 'बबंरता' का प्रयोग उसी अर्थ में कर रहा हूं जिस अर्थ में एंगेल्स ने प्रयुक्त किया । मुहम्मद के आगमन वे समय, ईरान अपनी संस्कृति और सभ्यता के चरम पुष्प इतिहास को अर्पित कर चुका था और अब लगभग उसी अवस्था में था जिसमें ईसा की चौथी शताब्दी में पतनोन्मुख रोम था । पश्चिमी एशिया की फ़ौजी और भौतिक शक्ति अरबों के फौजी वर्ग के हाथ में आई, लेकिन ईरान की उच्च सांस्कृतिक परम्परा के रहते अरब के लिए पश्चिमी एशिया का नेतृत्व करना अप्तम्भव था । फलतः बगरदाद गौर अदन की सभ्यता पारसियो कौ संस्कृति के मूलोच्छेदन पर कायम हुई । यहाँ भी हम उन्हीं कारणों से धर्म और धार्मिक वर्ग के एकाधिकार को कला और साहित्य पर देखते हैं । बल्कि प्रारम्भिक इस्लाम तो कला और साहित्य का इतना जबरदस्त दुश्मन होकर आया कि कविता, मूतिकला, संगीत आदितो बिल्कुल अवैध घोषित हो गयीं | इस टोटेलिटियनिञ्म -- धमं का जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एकमात्र, निरंकुश एवं व्यापक अधिकार का परिणाम साहित्य ओर कला पर क्या पड़ा? यूरोपीय सामन्तवादकां युग सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी अन्धकार का युग कहलाता है । ग्रीस और रोम की साहित्यिक परम्परा, जिससे ही १५वीं शताब्दी के बाद सम्पूर्ण यूरोप और फलस्वरूप दुनियाँ को गति मिलने वाली थी, लुप्त प्राय हो गयी । कठोर धर्म और धार्मिक वर्ग के दास हो जाने के कारण कविता, और गद्य, सभी धमं के लिए प्रचार का साधन मात्र रह गये । प्रथम ३०० वर्षों तक तो नाटक की परम्परा ही समाप्तप्राय रही क्योंकि चचें अभितय को पसन्द नहीं करता था । तेरहवीं शताब्दी तक आते आते एक प्रकार के जन-नाट्य का उदय हुआ । परन्तु ये जन-नाट्य भी केवल ईसा मसीह और संतों के जीवन के आधिकारिक उद्धरण मात्र रहते थे । उन पर पादरियों की सख्त पहरेदारी रहती थी ताकि स्वीकृत धर्म के विरुद्ध कोई भी भावना उनमें न आ जाय । संगीत, शिल्प आदि जो कुछ भी थोड़ा-बहुत




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