प्रकति भी मुखर हो उठी | Prakarti Bhi Mukhar Ho Uthi

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Prakarti Bhi Mukhar Ho Uthi by चुन्नीलाल शुक्ल - Chunnilal Shukl

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १) क्सम श्रौर कटक फूल का सहवासी काटा, फूल का श्रधिकाचिकः सम्मान देखन्र ईप्याविग चीख उठा--क्यो, लोग तुम्हे ही पूछने है, एेसी क्या करामात है तुममे कि दूर दूर से मनुष्य ही नहीं परु-पक्षी भी खीचे चले श्राते ह श्रौर तुम्हे अ्रपनानेके निष लानायित रहते दै । लेकिन मुके तो श्रपनाने की वान नो ट्र रही छना भी पसद नही करते । मुभसे इतनी अधिकः सुप्राद्रूत रखते है कि जव वे तुम्हे लेने के लिये श्राते हैं तो वड सतू रहते ट । कही मै उनका द्ध न जाऊ | प्रास्विर क्यो, मेरे से इतना भेदभाव रखा जाता है * मद मद सुगघ विखेरते हए--मुस्कराते हुए दूत ने कहा--दोस्त । लोग इसलिए मुक्त लेने के लिए आते है कि मैं उन्हे भीनी-भीनी सुगंध देता हूं । -उन्ह प्रफु-लना एव ताजगी से भर देता हुं । भले वे मुन नोटन्र रलग भी बर दे, मैं मुर्भा भी जाऊं तो भी जीवन के अन्तिम क्षणो तक उन्हे सुगघ ही सुगघ देता रहता हैँ इसलिये लोग मुभे चाहते है । जव तुम नी अपने जीवन में परिवर्तन नर योगे तो लोग तुम्हे भी चाहने लगेंगे पर तुम ऐसे हो कि फोई तुम्हारे हाथ भी नंगा दे तो इतने घधिव भटक उठते भ्म [6 [शि ६५ जक कव शर न (+~




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