आराधना | Aaradhana

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Aaradhana by धर्मचन्द जैन - Dharmachand Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नाराघना ] [ पड़ भर्थ-मलमृत्रादिद्रव्यो म यर्‌ क्षुधा, तृषा जादि भावों जं जुगु्मा-र्लानि का दयाग कर देते हूं उनके निज युप्ता अग होता है ऐम जिनेन्द्रदेव ने कहा है । अगूृदृत्टि अग को वक्त लोकवेदादिमुटत्वं, कुहक्संसर्गशंसनम्‌ । त्यवत्वेबामूढटष्टिः स्यात्‌, निम दत्वं श्रयन्नसौ ॥११३॥ सर्य--नोकमृदता, वेदमूटता आदि मूटताफो, सौर मिधथ्यादृष्टियं ङे सममे को तथा उनकी प्रणसा वो छोड बरके हो सूटनारटित अवस्था के आश्रय लेते हुए जीव अमूटदृष्टि जग का घारक होता है 1 उपयृरन बे गे मा लकघ न हृक्चरणेपु केपांचित्‌, दोपान्‌ वोद्योपगूहते । ध्ममक्त्या भवेत्तस्योपनरहुनाद्ध' शुद्धिरत्‌ ॥१४। जर्थ-नप्ग्ीं जीयो के मम्यन्दर्भन सौर चारिव मे सुछ दोतते मं टेखरार जो उसको देक देसे उनके युति फो परने सादा क उपप अग सहसासा है! (18 मध्र व्लरिचत्‌ जवान्‌ वित्तोणाघ्र, मदर्‌ चारियतपस्युनान्‌ 1 तान्‌ नियृत्य स्यिरीस्यति्‌, सियिततोकरणमगेनावि- ।\१५।१ सम --सन्पर्दन नर गायक म न्यु दप कनो जोत स रद उम चान उससे सम्णनण या चारिज से को स्पिय सर दया है पट रियल धुरम पप्रा कर्मे अन्य त~




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