मानवता की ओर भाग - 2 | Manavata Ki Or Bhag - 2

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Manavata Ki Or Bhag - 2  by मोतीलाल रांका - Motilal Raanka

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शूंमिका-- आज मानवता रो रही है । विश्वमच पर रक्तपात, नरसंहार 'और द्विंसा का जो भयावह नाटक चाज खेला जा रहा है उसे देख देख कर श्राज नुब्घा मानवता झाठ-झ्ाठ ओं रो रही है य चारो शोर से भारी संकट मे फेंस गई है। संस्कृति एवं झाध्यात्मिक दृष्टियों से सात्वता जिन उपकरणों को अनेक युगों से इतना महत्व प्रदान करती राई है, श्राज उन्हीं उत्कु्ट तत्वों, सावनाओं, उच्च दर्शो क गले पर्‌ श्र्यन्त निदेयतापूंक छुरी फेरी जा रही &। मानव की श्रन्तरात्मा से एक भयङ्कर तूफान उठ रहा है देनिक जीवन के सुख सौदयं, ज्ञान इत्यादि प्रायः सभी उत्तम वस्तु श्राज भारी सकट में फंसी हैं। झाज के महा भयद्कुर प्रलयकारी तांडव ने विश्वमे जो विकराल विभीषिका उत्पन्न की है उससे मानव-संस्कृति तथा श्राध्यात्मिकता के अवशेष रहने की क्या आशा हे ? विश्व मे जब जब पाप-घुद्धि होती है, सबल्त अनधिकार चेष्टा द्वारा निबलों के अधिकार ले लेना चाहते हैं । संसार में रक्तरोषण, राग्ष, स्वाथ 'झाथवा इन्द्रियजन्य सोहद से श्रेष्ठ कर्मों को धिस्पत कर भज्ञानता, मष्टाधकार को प्राप्त हो जाता है तब तथ मानवता रो उठती है ! षह ्रत्याचार देखने की श्रभ्यस्त नदीं है, उसकी वेदना की प्रचण्डता से, करण चाषो से सिंहासन हिल उठते है, राञ्य उलट-पलट जाते है, संसार छपित टीकर थर-थर काप उठता है। इत्तिद्दास इसका साक्षी है। प्राचीन ग्रन्थ इसी तत्त्व को पुन: २ प्रकट कर रहे हँ । यदी महासव्य बारषार हिर फिर कर संसार कफे सन्मुख चरा रहा है । मानव की प्रगति इसी सत्व को स्पष्ट कर रदी है ।




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