णाणसायर [अंक २] | Nanasayara [Ank 2]
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
100
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)19 / णाणसायर--भंक-2
भादिम सगे हुमा । उसके चरणों में समपित्त भाव से जो अहूं का उत्सगं किया वह
द्वितीय सगे हुमा, पूनः वड़ी कठोर परीक्षायें दी, यह तृतीय सगं भौर तुमने जीवन
को ऊर्ध्वमुख वनाया, यह जीवन का अन्तिम सग हुमा तथा तुमने अपने को
निरगे किया, यह् जीवन का वर्गातीत अपवर्ग हुआ ।
ह सुनकर कुम्भ नतमस्तक हो गया । इसी समय सभी दे एक पादप तले
वीतराग साधु को देवा, वे वहा गये, प्रणाम किया मौर पावन कलश जल से
पादाभिषेक किया । सभी ने उपदेश की कामना व्यक्त की। साधु ने कहा--
जीवन कां अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है भौर वह मोक्ष, .वन्धन के कारणभूत तन-मन-
वचन का भामूल मिट जाना ही है । इसके पश्चात् जीव पुनः संसार में नहीं
आता, जसे मन्यन के पश्चात् निकला मलन फिर दूध में एकरूप नहीं होता ।
यह कहकर सन्त महामौन में लीन हो गए । सबने देखा कि मूक माटी इस
घटना को अनिमेष निहार रही है ।
रूपक का निवेहण--एक पदार्थ में पर पदार्थ का रूप देखता या मानना
रूपक है। शब्द वाक्य पा वाक्यावलि मे रूपक का निर्वाह सहज होता है, परन्तु
समूचे प्रबन्ध काव्य में इसका निभाया जाना दुष्कर होता है तव तो भौरभी
दुष्कर होता है जबकि कथानक वृत् हो भौर उस पर भी अध्यायपरकं जैसा कि
उपयुक्त कथानक से ज्ञात होता है ।
मूकमाटी ऐसा ही एक अध्यात्मपूर्ण रूपक महाकाव्य है, जिसमें माटी के
मंगल कलश रूप में चरम विकास की कथा वर्णित है। कथा का प्रारम्भ सरिता
तट पर निशावसान तथा उपागमन के समय युगयुगों से पतिता माटी के उद्धाराथं
ज्ञानोद्भास से होता है। सरिता संसार का प्रतीक है । माटी रूप भात्मा अनादि
काल से कर्मपुद्गलों से आवद्ध है। निशा अज्ञान भौर उपा ज्ञान के प्रतीक हैं ।
जब भव्यात्मा में अज्ञान का उपशम या क्षय होता है और ज्ञान की किरणे, प्रकाश
फैलाने लगती है तो उसमें मुक्ति की कामना जागृत होती है । माटी रूप भात्मा
में यही भाव जगा है ।
वह घरती मां से अपनी पर्याय से मुक्ति का साघन पूछती है। यहाँ घरती
अन्तपचेतना है, जो मादी रूप भात्मा को समझाती हुई प्रतिसत्ता के प्रतिकूल
शाश्वत सत्ता को उद्भासित-ज्ञानोदुवुद्ध-करने के लिए कहती है गौर इसके लिष्
सर्वप्रथम भास्था गर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का उपदेश देती है । इसके पश्चात्
ही ज्ञान सम्यक् होता है । इससे साधक के मन मं स्वरातीत अनहद नाद गजता
है अर्थात् भरमा स्वरूप को पहचानती हं । यही सम्पक् चारित्र है। इस प्रकार
वह् सम्यग्दर्शन, सम्यग्क्ान ओौर सम्यक् चासि को मुक्ति का साधन बतलाती
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