त्रप्लिंग ग्रहण प्रवचन | Alinggrahan Pravachan
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
118
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अलिंग ग्रहण गाधा १७३२ ) [ १३
यहां तो भेदका भो निषेध करते हैं । निमित्तोंके आश्रयसे
ज्ञान होता ही नहीं है । ज्ञायकके माश्नयसे ज्ञान विकसित होता है ।
दन्द्िथां तथा परवस्तु भात्माको ` तीनकालमे स्पशं ही नहीं करती ।
अतः उनके द्वारा आत्मा जान ही नहीं सकता है । परन्तु
अपने भस्तिरूप ज्ञानस्व भावके द्वारा जानता है। अज्ञानी स्वयंकी
अमणाके कारण “संयोगसे मैं जानता हूं' इस प्रकार मानता है,
यह मान्यता स्वभाविका घात करती है । वह तो सभौ वस्तु्ओको
संयोगसे देखता है । ज्ञानी तो स्वयंको प्रत्यक्ष ज्ञानसे जानता है इस
प्रकार अपना निरांय करे तो परपदा्थंकों भो उसके स्वभावसे
जाननेका निखेय कर सकता है।
अल्पज्लताके समय इन्दियां, मन आदि निमित्त ह ओर
सर्वेज्दशाके समय इन्द्रियां, मन मादि निमित्त नहीं है! परन्तु
मल्पज्ञ दशामे इन्द्रियां, मन निमित्त हैं अतः उनके द्वारा जानता है
यह बात दूपित है । कोई भी जीव स्पर्शन्द्रियसे स्पष्ट नहीं करता
कानसे नहीं सुनता मौर मनते विचार नहीं करता परन्तु जाननेका
कायं म्मा स्वयंसे करता है । इन्द्रियों मौर मन हारा ज्ञान हुमा
यह संयोग चतानेके लिय व्यवहारनयसे कथन किया दहै, व्यवहार
नयका एमा मथं समज्लना, मौर संयोग चिना ही अत्मा ज्ञान करता
है, एेमा निश्चयनयका अथं समज्लना । नयक गथं शास्र नहीं
वोछता है परन्तु आत्मा अपने ज्ञान द्वारा भिन्न भिन्न अपेक्षा समझ
लेता है । मतिज्ञान, शुतज्ञान अप्रमाण नहीं है परन्तु प्रमाण ज्ञान
है, स प्रकार स्वाश्नय द्वारा यधाथें समझना चाहिये ।
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