सत्यवादी मन के भाव [१] | Satyavadi Man Ke Bhav [1]

Satyavadi Man Ke Bhav [1] by वाड़ीलाल मोतीलाल शाह - Vadilal Motilal Shah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १७.) हए हेता है जो रेते विषयको नदीं माननेवि ई! उस्न समय आपके उपदेशका मुख्य उद्देश यह रहता हे कि उन लोगापर अपने मक्तोंके हृदयम प्रणा-नफरत-पदा हो । तेरापंथ क) वी ल [ष ७ जवसे जेनप्तमानम तेरापंय ओर वीसपंथके निस्सार झगडेने जन दिया है तत्रमे एक तो उमकी जो पसम्मिचधित महर्ती राक्तिथी [4 क ७७ ¢ ३ क ५ म, (आ @ ¢ ७ वह छिन्न भिन्न हो गई । दूसरे मुनिनी सर्रीखे समानद्रोहियाकी बन > १५०; व पड़ी | हमें भी कई वक्त आपके उपदेशके सुननेका मौका मिला पर हमने आपके मुपे उक्त झगड़ा और परस्परमें इंपी द्ेपके वंदानेवादे विषये सिवा कमी तात्विक, आध्यात्मिक अयवा नेन- जतिकी माई सम्बन्ध रखनेवान्य्र उपदे नहीं सुना । भड़े ही इन वाततम तथ्य हो, तव भी हम करगे क उनकी चर्चीके लिए यह समय उपयुक्त नहीं हैं । यदि मुनिनीने अपने अआत्मदितके दिए अथवा नातिकी भलाईके लिए संसारावस्थाको छोडी होती तो कया जरूरत थी कि वे ऐसे निस्सार झगड़ॉको इतना महत्व दते शक्या उन्हें इसके सिवा और उपकारके काये नहीं नान पडे? क्या एक ठचि पद्पर्‌ अवस्थित होनेवाठेकों नातिरम इस प्रकार फूटका साम्राज्य बढ़ान ` उचित है? खेद है कि परम पवित्र दयावमेके घारक होनेपर भी मुनि- जीके छदयर्म समानकी दुदेशापर कुछ दया नहीं । वे उल्टा उसे दुदशाका केन्द्र बना रहे हैं । क्या पंचमकार्करे साधुर्जोका यही बाकी रह गया है £ रेता कोई अमागा न होगा जो अपनी जातिकी दुर्देशा करना पसन्द करेगा । करना तो दूर रहा किन्तु ऐसी बुध बातोंको हृदय भी न छायेगा । पर सापुत्वपनेका अभि है 4 छ




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