आर्षग्रन्थावलि : नवदर्शन संग्रह | Aarshagranthavali : Navdarshan Sangrah

Aarshagranthavali : Navdarshan Sangrah by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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'ावकि-दर्शन ७ इद्धि ओर पुरूपा्थ से हीन लोगों की जीविका वनाई है ॥ २॥ ज्योतिष्टोम मे मारा हज पश यदि खग को जाता है, तो यजमान अपने पिता को ही उसमें क्यों नहीं मार देता॥ ३ ॥ मरे हुए माणियों का श्राद्ध यदि उनके लिये दृष्तिकारक हो,तो परदेश जाने वालों के लिये तोशा तय्यार करना व्यथै है ॥ ४॥ यदि खर्म मे स्थित पितर यहां दान से हप्त होजाते हैं, तो महल पर यैठे दुर्ओं के लिये यहां क्यों नरी देते हो ॥५॥ सो जव तक जीवे, घी जीवे, ऋण छेकर भी घी पीते, भस्म हुए देह का फिर आना कहां ॥ ६ ॥ यदि यह्‌ दे से निकलकर परठोक को जाए, तो फिर बह वन्थुओं के लेह से घवराया हुआ वापिस क्यों नहीं आजाताहे ॥3॥ इसलिये मरे हुए के लिये प्रेतकर्म करना ब्राह्मणों ने अपने जीवन का उपाय बनाया है, इसके सिवाय ओर कुछ नहीं है ॥ ८ ॥ यहां जो,कोई रजा कोई रेक है, कोई रोगी कोई नीरोग है; कोई दुर्बल कोई बलवान है, कोई चुद्धिरीन कोई बुद्धिमान है, और कोई पु कोई मनुष्य हैश्यादि विचि्रताहै,रसमे भाणियों के अच्ट कारण नहीं, किन्तु यह सारी विचित्रता सभाव से दी दै-“ अमिरुष्णो जलं शीतं शीतस्पदस्तथा उनिकभकेनेदं चिच्ितं तस्मात्‌ स्वभावात्तद्रयवस्थितिः = अग्नि गम है, जर टण्डा है, ओर वायु शीतस्परीवाख है, यद्‌ किसने विचित्रता की है! (किसी ने नहीं)इसकिये स्वभाव से श्नकी यद व्यवस्था है। जब देह ही आत्मा है, और उसके लिये यदी लोक है । तो यहां का सुख दी हमारा उदेश्य होना चादिये 1 ५९२ रिक उ ॒इपल्यि--“ यावज्जीवं सुखं जीवेन्ना- = प्प €' स्तिमलोरमोचरः। मस्मीभूतस्य देह (१२) जगत्‌ कौ वि- च्विच्रता भैं अदृ का- रणन छीं ।




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