मानस - प्रतिमा | Manas-pratima

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Manas-pratima by दुर्गाप्रसाद - Durgaprasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रहे हो १? घर की भी सुध है' या नहीं ?” किन्तु दरवाज़ा खोलते ही दीपक के मन्द प्रकाश मे पति के पीछे एक ख्री को देखकर बह ठिठक सी रही । किशोर ने उसका सन्देह दूर करने के लिये उस बालिका का हाल कह सुनाया ! मालती उसक्रे पासं गई श्रौर दीपक को बालिका के मुंह के श्रागे किया । बालिका बदहवास सी हो रही थी । उसकी श्राँखों से अस्‌ बह रहे थे। वेदना की अगणित श्राकुल भावनाये उसके सुख को विकृत कि हुए थी । मालती का स्वभाव बडा ही स्नेदशील था। वह झ्राद्र हो उठी बालिकाकी इस दशा पर। वह उसे श्रषने हृदय में छिपा लेने को व्याकुल हो उठी । थोड़ी ही देर बाद सूखे कपडे पदन कर वह बालिका मालती की गोद मे मुह छिपाये श्रपने उत्तत सुनो से हृदय की कछृतशता को प्रकट कर रददी थी । किशोर का हृदय निश्छल आनग्द के हिडलें पर मग्न होकर भूल रहा था । व “तुम कहती हो क्रं बदमाश तुम्हे जबरदस्ती उखा लये श्रौर उसके बाद तुम देवगति से किप्ली प्रकार उनके पजे से छूट गईं । इसमें तुम्हारा तो कोई कसूर नहीं है । फिर तुम अपने पिता के घर जाने में क्यों डरती हो?” किशोरी ( यह उस बालिका का नाम था ) सरलहदय किशोर के इस प्रश्न को सुनकर व्याऊुल हो उठी । वह श्र केवल बालिका ही नदी थी। उसका शेशव यौबन से क्रीड़ा कर रहा था । उसका ५




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