निर्गुण साहित्य सांस्कृतिक पृष्ठभूमि | Nirgun Sahitya Sanskritik Prishthabhumi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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निगुंश साहित्य : सांस्कृतिक पृष्ठभूमि छ सर्वस्व मान बैठता है । ऐसे ही श्रवसरों पर उसका सहज जीवन अपना संतुलन खो बेठता है । मनुष्य जीवन का चरम झानंद जीवन की विविधता के बीच संतुलन प्राप्त करना ही है । स्वाभाविक संतुलन के द्वारा श्रपने मूल मानव को पाने के ही, चेष्टाखरूप.निर्गुण-संप्रदाय श्र निर्युणु साहित्य की सष्टि हुई । यदि हम यहाँ श्रपने देश में सभ्यता के उद्गम काल से लेकर संत साहित्य क जन्म तक के काल-व्यवघान पर एक विहंगम दृष्टि डालें तो हमें यद्द स्पष्ट ज्ञात होगा कि इमारे देश के सांस्कृतिक जीवन में प्रायः ऐसी शक्तियों का संघ प्रत्यक्ष या छध्रतयत्त रूप मेँ निरंतर होता रहा दै जिसमें एक श्रोर तो मनुष्य श्रपने सहज रूप को सुरक्षित रखते हुए उसी माग॑ पर श्रपना विकास करना चाहता है श्र दूसरी झ्ोर धर्म; संप्रदाय झादि की शक्तियाँ श्रनेक रूपों से उसकी दृष्टि को धूमिल कर वाह्य उपचारों में फवाए रखना चाहती हैं । हमारे यहाँ घमं का खोत प्रायः निगमागम कहा गया है । ठुलसीदास ने त्ूपने मानस में भी रचना की परिधि के संबंध में इसका उल्लेख किया हे । यह स्पष्ट ही है कि निगम से तात्पर्य तो वेदों से है, किठु “झागम” शब्द की कोई स्पष्ट रूपरेखा खींचना बहुत कठिन होगा । श्रागम संभवत उन सभी धघारणाश्रों; विश्वासों श्रौर मान्यताश्रों फा सूचक है; जो वेद वाद्य खोतों से कर भारतीय संस्कृति श्रौर घर्म का झनिवायं अंग बन गई । इस श्रागम का स्रोत प्राक्‌-देतिदासिक काल से श्रारंभ दोता हैं; जो श्ाज तक बराबर चला श्रा रहा है) यदि हम भारतीय विचारों श्रौर श्रादर्शों को आस्भसे देखें तो रुपष्ट प्रतीत दोगा कि श्यार्य जब इस देश में श्राए श्रौर उन्होंने तीन वेदों की रचना की* तथा उनमें लिखे हुए श्रादर्शों श्र श्राचरणों को ही वे विहित श्र काव्य समझते थे; उसी समय संभवत! इस देश में शसुर या श्रायंतर सभ्यता का भी प्रच- लन था श्रौर संभवतः वह सम्यता श्रौर संस्कृति भी काफी उन्नत थी । श्यार्यों ने श्ारंभ में उस सम्यता को श्रस्यंत उपेक्षा की दृष्टि से देखा श्रौर उन्होंने श्रपने तीनों वेदों में श्रपने ही देखताश्रों की स्वुति; प्रशंसा की है । युद्धों श्रौर संघर्षों में श्रपनी सफलता पर बलि श्रौर यज्ञ का विधान किया है। खान पान श्रादि में वे किसी निषेष श्रयवा वजनी से बेघे नहीं थे वे श्रनेक प्रकार के मां श्रादि के प्रेमी थे | नए १, 'नानापुराखनिगसागमससस्मतं यदू” तुलसीदास < रामसचरिवसानख, नागरीप्रचारिणी सभा; काशी इंष्ट २ । २, प्रो० रीस डेविस : बुखिस्ट इंडिया, ए० र१३।




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