साहित्य की उपक्रमणिका | Sahitya Ki Upakramanika
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
19 MB
कुल पष्ठ :
113
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)साहित्य-परिचय द.
किसी अङ्गकी उस समय उत्पत्ति ही नदीं होती । एेसे कितने
हौ अज्ञे ओर उपाज्ञंकी उत्पत्ति या विकास उसके यौवन-
कालमें होती है । इसी अवस्थामें उसके सव अङ्ग भरते ओर
फलते-फूछते हैं । इसी समय वह सवंधा ख़ुसंगठित और
दशनीय होती हे । जीवित भाषाओमिं सदा परिवतेन दोता
रहता हे । परिवर्तन होते होते कभी कभी यदांतक नोबत
आ पहुंचती हे 1के काङान्तरमे उस भाषाका पहचानना ठक
कठिन दो जाता दै-यह नदीं कहते बनता कि यह वदी
भाषा दहे । फर यह होता है कि इस प्रकार जीवित भाषाएँ
अपना एक रूप छोड़कर दूसरे रूपमें आती रहती हैं ।
ऐसी द्यामें कभी कभी उनका पुराना नाम बदल कर नया
हो कोइ नाम पड़ जाता हे। इसीको लोग कहते हक
अमुक भाषास मसुक भाषाकी उत्पत्ति हुई है; जैसे पाकृतसे
अपडंदा और अपश्ंशसे हिन्दी । इसे उत्पत्ति न कहकर
विकास भी कहते हें; अथात् हिन्दी प्रारकूतका विकसित रूप
है । मतरब यह कि प्राकृत हिन्दी के रूपमें आ गयी है । जीवित
भाषाओंके रूपमें परिवर्तन सदा जारी रहता दे ओर यदि
किसी उपायप्ते उसे सोक दिया जाय, तो फिर वह भाषा
जीवित नही रह सकती ।
हा, तो जब भाषा अपने बाव्य-कार्में होती है, तो उधर
किसीका ध्यान उतना आङ्ृष्र नहीं दोता-उसके अङ्ग-
प्रत्यज्ञॉपर गहरी दष्टि डालकर उनका विवेचन या विच्छे-
षण कोई नहीं करता । भाषाके अर्ञोके विण्छेषणको ही
व्याकरण कहते हैं। किसी भी भाषाके बाव्य-कालमें उसका
व्याकरण नहीं बनता, उसके सब अडह भरे-पूरे नददीं होते ।
सभी भाषाओंकी यद्दी बात है । आय्योंकी प्राचीनतम भाषा
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