साहित्य की उपक्रमणिका | Sahitya Ki Upakramanika

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Sahitya Ki Upakramanika by किशोरीदास वाजपेयी - Kishoridas Vajpayee

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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साहित्य-परिचय द. किसी अङ्गकी उस समय उत्पत्ति ही नदीं होती । एेसे कितने हौ अज्ञे ओर उपाज्ञंकी उत्पत्ति या विकास उसके यौवन- कालमें होती है । इसी अवस्थामें उसके सव अङ्ग भरते ओर फलते-फूछते हैं । इसी समय वह सवंधा ख़ुसंगठित और दशनीय होती हे । जीवित भाषाओमिं सदा परिवतेन दोता रहता हे । परिवर्तन होते होते कभी कभी यदांतक नोबत आ पहुंचती हे 1के काङान्तरमे उस भाषाका पहचानना ठक कठिन दो जाता दै-यह नदीं कहते बनता कि यह वदी भाषा दहे । फर यह होता है कि इस प्रकार जीवित भाषाएँ अपना एक रूप छोड़कर दूसरे रूपमें आती रहती हैं । ऐसी द्यामें कभी कभी उनका पुराना नाम बदल कर नया हो कोइ नाम पड़ जाता हे। इसीको लोग कहते हक अमुक भाषास मसुक भाषाकी उत्पत्ति हुई है; जैसे पाकृतसे अपडंदा और अपश्ंशसे हिन्दी । इसे उत्पत्ति न कहकर विकास भी कहते हें; अथात्‌ हिन्दी प्रारकूतका विकसित रूप है । मतरब यह कि प्राकृत हिन्दी के रूपमें आ गयी है । जीवित भाषाओंके रूपमें परिवर्तन सदा जारी रहता दे ओर यदि किसी उपायप्ते उसे सोक दिया जाय, तो फिर वह भाषा जीवित नही रह सकती । हा, तो जब भाषा अपने बाव्य-कार्में होती है, तो उधर किसीका ध्यान उतना आङ्ृष्र नहीं दोता-उसके अङ्ग- प्रत्यज्ञॉपर गहरी दष्टि डालकर उनका विवेचन या विच्छे- षण कोई नहीं करता । भाषाके अर्ञोके विण्छेषणको ही व्याकरण कहते हैं। किसी भी भाषाके बाव्य-कालमें उसका व्याकरण नहीं बनता, उसके सब अडह भरे-पूरे नददीं होते । सभी भाषाओंकी यद्दी बात है । आय्योंकी प्राचीनतम भाषा




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