भारत में प्रादेशिकवाद एक राजनीतिक भौगोलिक अध्ययन | Bharat Men Pradeshikavd Ek Rajanitik Bhaugolik Adhyayan

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Bharat Men Pradeshikavd Ek Rajanitik Bhaugolik Adhyayan  by आलोक मिश्र - Aalok Mishr

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about आलोक मिश्र - Aalok Mishr

Add Infomation AboutAalok Mishr

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
[5] भारतीय संघ का अभ्युदय राष्ट्रीय एकता की एक प्रमुख समस्या सघीय राज्य व्यवस्था को व्यावहारिक रूप से क्रियान्वित करने मे स्पष्ट रूप से विभाजित क्षेत्रो के एकीकरण से सम्बन्धित है (आज इनमे से अधिकाश क्षेत्रो का राज्य के रूपमे गठन किया गया है)। भारत के क्षेत्र ओर उप-क्षेत्र स्पष्टतया सामाजिक ओर सास्कृतिक पक्षो पर आधारित हैँ अत हमे उनके स्वरूप ओर उनकी समस्याओं को समझना चाहिए । यदि किसी भी प्रणाली की कल्पना की जाये तो भारत जैसे विस्तृत क्षेत्र वाले देश मे प्रादेशिकवाद ओर उपप्रदेशवाद से बढकर अधिक बुनियादी कोई अन्य विचार नही हो सकता है किन्तु एक बार जब सधीय राष्ट्र ^ राज्य अस्तित्व मे आता है तथा राष्ट्रीय स्वतन्त्रता एक यथार्थ रूप ग्रहण कर लेती है तब क्षेत्रीय भावनाय ओर मोगि व्यक्त होती हँ ओर इसके दावेदार खडे होते है । इसका प्रमाण मानव इतिहास है। राष्ट्र की एकता ओर सामजस्य के कारणो का जो समर्थन कर रहे है वे प्रकारान्तर से उसके उपक्षेत्रीय हितों की रक्षा या समर्थन का प्रत्येक प्रयास विभाजक, विखडक ओर असामजस्यपूर्ण मानते हैँ । यह राष्ट्रीय समञ्ज के प्रति सही उपागम नही है । हमे याद रखना चाहिए कि भारत जैसे विभिन्नता ओर अनेकता वाले देश मे एकता से अभिप्राय एकरूपता से नही है ओर न ही सामजस्य का अर्थ केन्द्रीयकरण है | राष्ट्रीय पहचान बनाने की प्रक्रिया को पूर्वं शर्त के रूपमे राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत इन प्रदेशो का राष्ट्र मे एकीकरण आवश्यक होता है| उदाहरण के लिए, एक भारतीय होने का मतलब यह नही है कि वह तमिलियन, तेलगु, बगाली, गुजराती, कश्मीरी, असमी, पंजाबी, नागा इत्यादि नहीं हो सकता | प्रादेशिकता ओर राष्ट्रीयता के बीच दृढ सामजस्य ही राष्ट्रीय एकता को वास्तविक रूप मे समृद्ध कर सकते हैं। फिर भी यह प्रमाणित है कि राष्ट्रीय अन्धभक्ति की तरह ही प्रतिक्रियावादी, प्रादेशिक या उप-प्रादेशिक हानिकारक देश भक्ति भी राष्ट्रीय एकता के लिए अत्यन्त घातक और विनाशकारी है। राष्ट्रीय आन्दोलन के नेताओ और, भारतीय गणराज्य के निर्माताओ के दिमाग मे ऐसे प्रबल विचार सर्वोपरि थे। इसलिए हम पाते हैं कि सन्‌ 1947 ई० मे राष्ट्रीय सप्रभुता हासिल करने और सन्‌ 1950 ई० में लोकतान्त्रिक सविधान अगीकार करने के साथ ही हमने भारत के लोकतान्त्रिक पुनर्गठन की प्रक्रिया आरम्भ कर दी। इस तथ्य से प्रमाणित होता है कि सविधान की घोषणा से ही सघीय इकाइयो के सगठन का कार्य लगातार चलता रहा।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now