साहित्य में लिखित शब्द की सत्ता और श्रव्य - माध्यम में उसके प्रसारण के आयाम | Sahitya Men Likhit Shabd Ki Satta Aur Shravya - Madhyam Men Usake Prasaran Ke Aayam

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Sahitya Men Likhit Shabd Ki Satta Aur Shravya - Madhyam Men Usake Prasaran Ke Aayam by मुरलीधर प्रसाद सिंह - Muralidhar Prasad Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[7] अनिवार्य है कि अर्थ और रचनात्मकता के स्तर पर उसका रचनाकार से सवाद हो। परन्तु जिस तरह, “अपनी कालगति में टी. वी, का पढ़ना उस तरह सभव नही है जिस तरह प्रिंट-मीडियम की पुस्तक को पढ़ना' क्योकि 'टी. वी, छवियो और ध्वनि का अप्रतिहत प्रवाह करता ह उसी तरह, रेडियो को भी उसकी कालगति मे पुस्तक की तरह पढना सभव नही ह क्योकि रेडियो भी ध्वनियो ओर छवियो का अप्रतिहत प्रवाह करता है। ठीक इसी तरह, जैसे हम टी. वी. से तटस्थ होकर नही सोच पाते, उससे दूरी बनाकर नही सोच पाते, हम जब भी सोचते हैं उसके भीतर रहकर सोचते है वैसे ही, रेडियो से भी तटस्थ होकर उसके प्रसारण का विश्लेषण नही किया जा सकता। हम जो भी सोच सकते है, रेडियो-प्रसारण के भीतर रहकर ही। रेडियो के श्रोता के पास वह अवकाश, वह अतराल नही है। क्षण भर के लिए उसका ध्यान भटका ओर प्रसारण का अगला हिस्सा उसकी पकड़ से जा द्टेगा, एेसे कि उसे दुबारा पकड़ना असभव होगा। सचता रेडियो का श्रोता भी है। खासतौर से कल्पनाशील ओर स्चनाधर्मी प्रसारण मे लेकिन एक तो, ऐसा प्रसारण कुल प्रसारण का बेहद न्यूनाश होता है दूसरे, रचना से बार- वार साक्षात्कार की सुविधा का एकात अभाव नए-नए अर्थ-स्तर उद्घाटित करने के सुख से श्रोता को वचित रखता है। सहभागिता का दूसरा स्तर सवेदना का होता है ओर रेडियो-प्रसारण यहाँ भी साहित्य की तुलना मे उल्टी दिशा में है। “सचार ने सप्रेषण मे बाधा पहुँचाई है। यह अटपटा लग सकता है पर, संचार सचरित होते हैं, सप्रेषित नहीं करते, संप्रेषण नही होने देते।””* पढा-लिखा आधुनिक श्रोता/पाठक/दर्शक दुनियाँ की और तमाम चीज़ो के साथ खबरों का भी उपभोक्ता होता है। परन्तु उसके ध्यान मे वह सब रोज सुबह-शाम लाया जाता हैं जो पिछले दिन या गई रात या आज दिन कहीं न कहीं घट चुका होता है और जिसके कुछ अवशेष उस समय भी घट रहे होते हैं जिस समय यह उपभोक्ता समाचार पढ़, देख या सुन रहा होता है । “उसकी 1 टी. वी, की भाषा ओर विज्ञापन की भाषा' लेखक सुधीश पचौरी, 'हस' नवबर 1998--पृ 64 3 निबध 'उत्तर आधुनिकता के विभिन्न सदर्भ'--रमश ऋषिकल्प--'हस' फरवरी, 1998--पृ० 81




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