चेतना | Chetana

Chetana by बाबूराम पालीवाल - BABURAM PALIWAL

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बारह जब साकार कल्पना में तुम प्राणो में श्रा बसौं हमार, टूट गए तब सदसा तड़-तड़ कुटिल काल के बन्धन सारे, सव सामाजिक परिभापायें दिन्न-मिन्न हो गड क्षणो मे, प्राण ! देखता हूं में तुमको जग के सब चल-अचल कणों में , आज तुम्हारा एक रूप, बनकर रूप, कण-कण में छाया ! बाज तुम्हारी सुमधघुर सुधि ने फिर से तुम्हें समीप चुलाया ! मेरा ज्ञान तड़क कर बोला-- 'मूरख, यह सब तेरा आम है !' किन्तु भावना ने दुलराकर कहा “स्नेह का यही नियम हूं स्नेह न ाधघारित हो सकता कभी पाधिवी उपधानों पर; भौतिकता से परे प्राण जब श्रवलम्बित होता प्राणों परः प्रस्तर की प्रतिमा में तब भक्तो ने निज भगवान बसाया ! श्माज तुम्हारी सुमधुर सुधि ने फिर से तुम्हें समीप बलाया ! तना




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