प्रेमचन्द | Premchand
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
220
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)| १३ |
उपन्यासकार को इतना प्रयत्न करना चाहिए कि उसके विचार परोक्ष
रूप से व्यक्त हों । उपन्यास कौ स्वाभाविकता मे उस विचार के समावेश से
कोई विघ्न न पड़ने पाए । भ्रन्यथा उपन्यास नीरस हो जायगा ।”'
उपन्यास-कला के व्याख्याकार के रूप मं प्रेमचन्द कौ उपर्युक्त मान्यता थी ।
किसी सीमा तक वे इसमें सफल भी हृए ह । लेकिन उपन्यासकार प्रेमचन्द
अपनी स्वयं की मान्यताओं को जगह-जगह छोड़ जाते हैं श्र सीधे भाषणकर्ता
के रूप में आरा उपस्थित होते हैं । उनके उपन्यासों में ऐसे स्थल भ्रनेक हैं । उन्हीं
स्थलों के भ्राधार पर कुछ ्रालोचक उन पर प्रचारवादी होने का भ्रारोप लगाते
हं । मूल प्रइन यह है कि प्रेमचन्द ऐसा क्यों करते है ? उपन्यास-कला कौ
व्याख्या करते हुए जिस तथ्य का उन्होने विरोध किया है, उसे वे उपन्यास लिखते
समय क्यों दृष्टि से ग्रोक्ञल कर जाते हँ 2? उपन्यास-कला पर लेखबद्ध जो -उनके
विचार हैं वे पुणंतः उनके उपन्यास-साहित्य मे क्यों नहीं मिलते ? इसका एक
मात्र उत्तर है--उनका समस्याग्रों के प्रति प्रेम । सामान्य ्रौपन्यासिक कला-
सम्बन्धी जितने दोष प्रेमचन्द के उपन्यासो मे मिलते ह, उसका कारण बहत कृ
उनका समस्याग्रों के प्रति गहरा श्राकषंण है । वे सभी तत्त्वों को पीछे छोड कर
समस्याग्रो के ताने-बाने मे उलज्ञ जाते हं । एेसी स्थिति मं उनके उपन्यासो को
केवल सामाजिक उपन्यास की संज्ञा नहीं दी जा सकती । उनकी सामाजिकता
समस्याग्रो के साथ है। कड़ी भ्रालोचनाग्रों ग्रौर श्राक्षेपों के बावजूद प्रेमचन्द
ने यह मागे नहीं छोड़ा था । ग्रतः उनके उपन्यास सस्मयामूलक हँ । वे उपन्यास
की पुरानी परम्परागत शास्त्रीय सीमाग्रों में नहीं बँध पाते ।
दूसरे, कुछ म्रालोचक प्रेमचन्द के उपन्यासो को व्यक्ति-चरित्र के उपन्यास
बताते हु । यह श्रवश्य है कि प्रेमचन्द का एक-ग्राध उपन्यास चरित्र-प्रधान है;
लेकिन इस तथ्य को स्वीकार कर लेने पर भी प्रेमचन्द के समस्याम्ूलक उपन्यासकार
होने मं कोई रुकावट नहीं श्राती । किसी भी लेखक के साहित्य का मूल्यांकन
उसकी केवल एक-म्राध रचना के ग्राधार पर नहीं किया जा सकता । चरित्रांकन
के सम्बन्ध मे भी प्रेमचन्द की स्वयं की मान्यताग्नों मे विरोध मिलेगा । “उपन्यासः
नामक निबन्ध के प्रारम्भमे ही वे लिखते ह--
“में उपन्यास को मानव-चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ । मानव-चरित्र
पर प्रकादा डालना श्रौर उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल
तत्त्व है । १0
१. कुछ विचार--ृष्ठ ४२० ४३ ¦
२. कुं विचार--ृष्ठ ३० |
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