पराड़करजी और पत्रकारिता | Paradakaraji Aur Patrakarita
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
31 MB
कुल पष्ठ :
372
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१० पराडकरजी भ्रौर पत्रकारिता
मेरा वर्षो तक निजी परिचय रहा ह । उनके जीवनके बहुतसे पहल् जो
साधारणतः ोगोके सामने नहीं आते भौर जिनमेसे कुछ अब भी न लाये
जा सकेंगे मुझे अवगत थे । उनको युवावस्थीसे लेकर मरणकाल तक जैसे
कष्टोका सामना करना पडा उनको मेँ जानता हं । इस प्रकारकी निरन्तर
आपन्न अवस्था मनुष्यके स्वको दबा देती है । पग-पगका इच्छाभिघात
जीवनको शुष्क ओर एकांगी बना देता ह ।
हम धीरे-धीरे उस जमानेको भूरते जा रहे हँ । गधी-युगको तो अभी
समाप्त हुआ भी नहीं कह सकते, परन्तु उस २५-३० वर्षकी अवधिमें जो
नक्षत्र हमारे राजनीतिक आकाशपर कभी छिटके थे उनमेंसे बहुतसे विस्मृति-
की गर्तमें विलीन हो गये । ऐसी अवस्थामें इस बातकी आवश्यकता है कि
लोगोंके सामने उन महारथियोंके जीवनकी झलक भी आती रहे जिन्होंने
उस भूमिकाको तैयार किया जिसमें स्वाघीनता पनप सकी है । अभी थोड़े
दिन हुए पं० बनारसीदास चतुर्वेदीके सम्पादनसे एक पुस्तक निकली
है जिसमे देशके पुराने क्रान्तिकारियोंकी चर्चा है। मेंने उसका इसी दृष्टिसे
स्वागत किया था । आज पराड़करजीके सम्बन्धमें लिखी गयी इस पुस्तकका
भी स्वागत कर रहा हँ । मेने पुस्तकको यत्र-तत्र दखा ह । लेखकने अपने
पात्रके जोवनके विभिन्न पहलुओंको खोगोके सामने रखनेका अच्छा प्रयास
किया है । दुःखमय कौटुम्बिक जीवन, अच्छिद्र आर्थिक कष्ट, निरन्तर राज-
नोतिक संघर्ष--इन सबके बीचमें रहते हुए पराड़करजीने हिन्दी पत्र
कारिताको जो अमूल्य निधि प्रदान की उससे हिन्दी-जगत् जल्दी उभऋण
नहीं हो सकता । उस समयका (आज' अग्रलेखोके कषेत्रम किसी भी अच्छे
अंग्रेजी पत्रसे तुलना कर सकता था । उन्होने जो परम्परां स्थापित कीं
वह आज हिन्दी पत्रकार-जगत्की सामान्य सम्पत्ति हो गयी है ।
पुस्तक पढ़ने योग्य है और मैं इसके लिए लेखकको बधाई देता हूँ ।
लखनऊ
१३ सितम्बर १९६० -सम्पूणानन्द
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