पराड़करजी और पत्रकारिता | Paradakaraji Aur Patrakarita

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Book Image : पराड़करजी और पत्रकारिता  - Paradakaraji Aur Patrakarita

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० पराडकरजी भ्रौर पत्रकारिता मेरा वर्षो तक निजी परिचय रहा ह । उनके जीवनके बहुतसे पहल्‌ जो साधारणतः ोगोके सामने नहीं आते भौर जिनमेसे कुछ अब भी न लाये जा सकेंगे मुझे अवगत थे । उनको युवावस्थीसे लेकर मरणकाल तक जैसे कष्टोका सामना करना पडा उनको मेँ जानता हं । इस प्रकारकी निरन्तर आपन्न अवस्था मनुष्यके स्वको दबा देती है । पग-पगका इच्छाभिघात जीवनको शुष्क ओर एकांगी बना देता ह । हम धीरे-धीरे उस जमानेको भूरते जा रहे हँ । गधी-युगको तो अभी समाप्त हुआ भी नहीं कह सकते, परन्तु उस २५-३० वर्षकी अवधिमें जो नक्षत्र हमारे राजनीतिक आकाशपर कभी छिटके थे उनमेंसे बहुतसे विस्मृति- की गर्तमें विलीन हो गये । ऐसी अवस्थामें इस बातकी आवश्यकता है कि लोगोंके सामने उन महारथियोंके जीवनकी झलक भी आती रहे जिन्होंने उस भूमिकाको तैयार किया जिसमें स्वाघीनता पनप सकी है । अभी थोड़े दिन हुए पं० बनारसीदास चतुर्वेदीके सम्पादनसे एक पुस्तक निकली है जिसमे देशके पुराने क्रान्तिकारियोंकी चर्चा है। मेंने उसका इसी दृष्टिसे स्वागत किया था । आज पराड़करजीके सम्बन्धमें लिखी गयी इस पुस्तकका भी स्वागत कर रहा हँ । मेने पुस्तकको यत्र-तत्र दखा ह । लेखकने अपने पात्रके जोवनके विभिन्न पहलुओंको खोगोके सामने रखनेका अच्छा प्रयास किया है । दुःखमय कौटुम्बिक जीवन, अच्छिद्र आर्थिक कष्ट, निरन्तर राज- नोतिक संघर्ष--इन सबके बीचमें रहते हुए पराड़करजीने हिन्दी पत्र कारिताको जो अमूल्य निधि प्रदान की उससे हिन्दी-जगत्‌ जल्दी उभऋण नहीं हो सकता । उस समयका (आज' अग्रलेखोके कषेत्रम किसी भी अच्छे अंग्रेजी पत्रसे तुलना कर सकता था । उन्होने जो परम्परां स्थापित कीं वह आज हिन्दी पत्रकार-जगत्‌की सामान्य सम्पत्ति हो गयी है । पुस्तक पढ़ने योग्य है और मैं इसके लिए लेखकको बधाई देता हूँ । लखनऊ १३ सितम्बर १९६० -सम्पूणानन्द




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