कामायनी की व्याख्यात्मक आलोचना | Kamayani Ki Vyakhyatmak Aalochana
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
30 MB
कुल पष्ठ :
422
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)/ ( ८ )
हमें काव्य के उन मूलभूत सिद्धान्तों पर दृष्टि पात करना श्रावश्यक है जिनकी सनातन
गति में भारतीय समाज, संस्कृति एवं साहिंत्य श्रब तक पलते श्राये हैं ।
“रसात्मकं वाक्य काव्य” की स्वर लहरी से परिचित यह भी जानते ई कि भारतीय
परंपरा रसो वे सः की बात भी मानती है । इसका श्रास्वाद ब्रह्मास्वाद है । “ब्रह्मास्वादे
ब्रह्मात्र प्रकाशते, रसे तु विभावायपीति भेदात् सादृश्यम् की बात इस संबंध में मन-
नीय दहै । रस का इतिहास वाक् का इतिहास है | भारतीय दर्शन में “बाग वै सम्राट परमं
न्रह्म” की बात श्राई है । वाच ऋग रसः क्वः साम रसः साम्न उद्रीथो रसः
( छान्दोग्यो ) । उद्रीथही श्रौकार है, प्रणव है । करत्वा कविताकादी दसरा नामहै।
जिनके श्रक्र, पाद, समाप्ति नियत नियम के श्रनुसार होते हैं उन मंत्रों को ऋक कहते
हैं । उद्वीथ को श्रोंकार घोषित करने वाले वाणी को ऋचा तथा प्राण को साम कहते
ई । “वागेव विश्वा भुवनानि यज्ञे तथा “विन्देय देवतां वाचमृत तामात्मनः कलामः
श्रादि के विस्तार की श्रोर न भुकते हुए यहाँ इतना लिखना ही पर्यास है कि समस्त
विश्व प्रपश्च वाक का ही विलास है । वाक का निष्पंद ही कविता को जन्म देता है
नाद विन्दु की दाशनिक व्याख्या इस संबंध में मननीय है । काव्य स्वर के आह्वादक
तत्वों तथा प्राण की आझानन्दानुभूति के समन्वय से बनता है ! इसी समन्वय से
माधुयं तथा रस क) क्रमशः सष्टि दोती है । इसी रस का दूसरा नाम श्रानन्दः है|
कामायनी की परि-समाप्ति इसी श्रानन्दोपलब्धि की भूमि पर होती है :--
नः
समरस थे जड या चेतन „~
्रानन्द् श्रखर्ड घना थाः |
कामायनी मँ ही नहीं वरन् प्रसाद के समग्र साहित्य में नय ` की श्रानन्द्
साधना वतमान है । प्रसाद् के श्रानन्द्वादी दृष्टिकोण पर बहधा विद्वानों ने लिला
है उन तत्वांशों को यँ दुहराना उपयुक्त नहीं ।
आनन्द का काश्यात्सक रूप शांत रस है :--
“शमोड्स्य स्थायी, निर्वदादयस्तु वब्यभिचारिण: सच शमो निरीहावस्थायाम्
श्रानन्दः स्वात्मविश्रामदिति”
के अनुसार शांत रस का स्थायी भाव शम, संचारीभाव निवंद है । श्रात्म-विश्वाम-प्रसूत
सुख की प्राप्ति ही श्रानन्द है ।
“कामायनी” में इसी शांत रस का परिपाक है श्रौर “श्रानन्द” हो उसकी चरम
सिंदि है।
रसास्वाद की मीमांहा के साथ वासनाः की मीमांसा संलिष्ट है । ““सवासनानां
सभ्यानां रसस्यास्वादनं भवेत । निर्वासनास्तुरङ्गान्तः काष्ट कुडयार्मसन्निभाः । बासना-
युक्त सभ्यो को हो रसास्वाद होता है । वासनायें श्रनादि हैं । चित्त के श्राश्रय इनका
संग्रह कर्मो से हेता है । यही वासनायें संस्कारों में परिणत होकर श्रायु फल भोग का
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