पृथ्वी का इतिहास | Prithavi Ka Itihas
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
216
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पहला प्रकरण ५
दे
हैं दिन, एवं दूसरे भाग के अन्धकार को हमने नाम दिया है रात्रि।
पृथ्वी परिचिमसे पूवं कीओर घूमती रहती हे, जिससे हमें प्रतीत
होता है फ सूयं ही पूर्व से पह्म की ओर चलता रहता हें।
पृथ्वी के किसी एक स्थान पर सूय से हमारे प्रथम साक्षात्कार की
वेला से लेकर दूबारा साक्षात्कार होने तक के बीचवाले समय को--
अर्थात् जितनी देर में पृथ्वी अपने वृत्त पर एक बार पूरी चक्कर काट ले
उतने समय को--हम कहते हैं एक दिन एवं सूर्य के चारों ओर
एक बार प्रदक्षिणा] करने के समस्त समय को कहा जाता हे एक
वर्ष । मिनट, घंटा, दण्ड, पहर इत्यादि हमने समय के विभाग कर
लिये हैं अवद्य; किन्तु यह सारी गणना उत्पन्न हुई हे इसी सूये-
प्रदक्षिणा की क्रिया से; क्योंकि उन सबके मूल में इसी वर्ष और दिन
की व्यवस्था है ।
एवं इस क्रिया के चाथ हमारी वतमान जलवायु कायोग भी कम
नहीं हं । जिस प्रकार थोड़ी देर तक चक्कर खाने के बाद सर घूमने के
कारण मनष्य के पैर अव्यवस्थित ठग से दाहिने-दायें पडने लगने है,
पृथ्वी भी उसी प्रकार थोड़ा राह से डिग जाती है। फल यह होता ह
कि सूयं का निकटतम विन्दु कभी भी पृथ्वी के एक ही भाग के सामने
नहीं पड़ता। चलते चलते पृथ्वी का जो भाग जब कभी सूर्य के पास
आ पड़ता हं तब उसी भाग में अधिक गर्मी पड़ती है और दूसरे भाग में
सर्दी पड़ती है। किन्तु इसकी भी एक निर्दिष्ट सीमा हे । सूर्य की उत्तर
दिशा में क्षण-भर को जाते जाते पृथ्वी दूसरी दिशा में ढुल जाती है,
तब उसके दक्षिण में गर्मी बढ़ जाती हे अर्थात् उस भाग से सूय॑ सबसे
अधिक निकट पड़ता हैं। यह जो दक्षिण-उत्तर में सू्य-रष्मियों की पहुँच
की; सीमा है, इसके आस-पास के स्थान को हम “नातिशीतोष्णमण्डल'
कहते हें । इस भाग में रहना ही ममुष्य के लिए सबसे अधिक सुखद होता
हैं। गर्मी-सर्दी आदि में परिवर्तन होने के बावजद भी साधारणतया
वायुमण्डल बहुत अच्छ] रहता हं । इसके परे जो भाग हं उसे कहा
जाता हे--'हिममण्डल' । वहाँ के लोग सूपे को कभी भी समीप नहीं पाते
हें जिससे उन्हें बारहों महीने कड़ी सर्दी और बफफ़े के बीच रहना
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