जैन लॉ | Jain - Law

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Jain - Law by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १३] नता फे साय ( यदि ऐसे कोई खिाज दों ) मिताक्षरा कानून से हुआ न कि जेन-लॉ के अनुसार जैसा कि देना चाहिए था । इन सुकृदमेों के पश्चात्‌ जो श्रीर सुकृदमे हए उनमें भो प्रायः यद्दी दशा रही । परन्तु ते भो सरकार का उदेश्य श्रौर न्याया- लयो का कतेन्य यही है कि बद्द जैन-लॉ या जैन रिवाजों के भनुसार ही जेनियों के मुकृदमों का निर्णय करें । यद्द कोड इसी भ्रभिलापा से वय्यार किया गया दे कि जैन-लॉ फिर खतन्ततापूर्वक एक घोर प्रकाश में श्राकर कार्य में परिणत हो सके तथा जेनी श्रपने ही कानृन के पाचन्द रदकर झ्रपने घर्म का समुचित पालन कर सके । यह प्रश्न कि दिन्दू-ल की पावन्दी में जैनियों का क्या विग- ढृता दै उत्पन्न नददीं दाता हैं न दाना ही चाहिए# । इस प्रकार तेः क भ १ 0 9 ७9 क = ०००७५१५ * दस वात के दिखने के दिष्‌ कि यदि जैनी श्रपने कानून की पात्रन्दी; नहीं करने पाये थे ते किस प्रकार की हानिर्या उप्त होगी एक ष्टी उदाहरण पर्याप्त होगा । जैनियें मे पुत्र का श्रधिकार माता के श्राधीन र्खा गवा है' जिसकी उपस्थित मे वष्ट चिरषा (दाय) नहीं परता रै । शी श्रपने ` परति की सम्पूणं सम्पत्ति की पूरणं स्वामिनी होती द। वह स्वतन्त्र होती' है कि उसे चाऐ जिसके दे ढाले । उसको कोई रेक नहीं सकता, सिवाय इसके कि उसको छेटे बच्चों के पाठन-पापण का ध्यान श्रवश्य रखना होता है! इस उत्तम नियम का यह प्रभाव है कि पुत्र को सदाचार, शील श्रौर घाज्ञापाठन में झादर्श श्रनना पढ़ता है ताकि माता का उस पर प्रेम बना रहे । पुत्र को स्वतन्त्र स्वामित्व माता की उपस्थिति में देने का यह परिणाम होता है कि माता की श्राज्ञा निप्फठ हो जाती है। जैनियें में दोपियें की संख्या कम होना जैसा कि श्रन्य जातियों की श्पेक्षा चर्तमान में हैं जैन-कानून बनानेवालों की घुद्धि- सत्ता का ज्वलन्त उदाहरण है। यदि जैनियें पर वह कानून छायू किया जाता है जिसका भ्रमाव माता की जवान के बंद कर देना या उसकी श्राज्ञा को निष्फल धना देना है तो ऐसी दशा में उनसे इतने उत्तम सदाचार की श्राषठ नहीं की जा सकती 1 -~-------------~ ~~ -------- --~--~----- ~~~




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