पौराणिक महापुरुष | porandik mahapurush

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porandik mahapurush  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३) दुख से मथ सा उटा । उन्होंने ब्राहमण से हाथ जोड़ फर कहा, सद्दाराज यदि झाप इस चालक को भी खरीद लें तो ्रापी युम पर बड़ी कृपा हो । श्राह्मण फो देया श्रा गई । उसने उचितं स्वर्ण सुद्रायें देकर वालक को भी खरीद लिया। फिर क्या ! फिर तो रानी राज्ञा की परिक्रमा कर कुमार सदित त्राह्मण के साथ चलने के लिये तैयार हो गई । राजा का कलेजा काँप उठा । उनके प्राणों के झन्दुर एक बेकलीसी दौड़ गई। वे एफ विल्षिप्त मनुष्य की भाँति रानी की श्रोर देखने लगे। किन्तु इससे क्‍या होता ? रानी दासी के रूप में 'झत्र तो श्राह्मण की हौ चुकी थी ब्राह्मणः राजा के दुःख श्र उनकी ब्याछुलता पर ध्यान न दे कर रानी . छौर कुमार को ले कर छापने घर की ओर उलता यना । राज्ञो अभी वियोग के इस गददरे सागर में निमम ही थे कि ब्राह्मण रूपघारों विश्वामित्र जी फिर वहाँ घा पहुचे श्रौर उन्होंने राजा से पनी दश्धिया माँगी । राजा ने उत्तर दिया, सी घोर पुत्र के.वचने से जो संपत्ति श्राप्त हुई है, उसे ले जाइये । किन्तु विश्वासित्र को उतने हो से तो संतोष होने चाला नहीं । रन्दोंने कहा--राजन, यदद दक्षिणा तो बहुत थोड़ी है । '्ापने कह्दा थो,. कि मैं राजसूय यश फरने का संपूर्ण धन शांपको दूँगा ! हाँ कहा था--रजां ने उत्तर दिया -भौर अब भी कहता हूँ। मेरा शरीर वच गया है, में उसे वाज़ार में वेंचकर 'छापकी दक्षिणा की रकम पूरी फूँगा। किन्तु इसके लिये युपे इ. समय और 'वादिये 1




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