ओपपातिकसूत्र | Ouppatikasutra

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : ओपपातिकसूत्र     - Ouppatikasutra

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अज्ञात - Unknown

Add Infomation AboutUnknown

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
है धनुरवेद प्रभूत्ति लीकिक शास्त्रों का मूल उद्गम खोत वेद हैं, यह वताने के लिए ही यह उपक्रम किया गया हो । भ्रस्तु । अगौ का उल्लेख जिस प्रकार प्राचीन ग्रागम ग्रन्थों में हुमा है और उनकी सख्या वारह वताई है, वर्ह वारह्‌ उपागो का उल्लेख नही हरा ह । नन्दीमूत्र मे भी कालिक श्रौर उत्कालिकके रूपमे उपागो का उल्लेख रै । पर वारह उपागोके रुप में नहीं । वारह उपागों का उल्लेख वारहवी शत्ताव्दी से पहले के ग्रन्थो मे नही है । यह निधिवाद हैं कि अगो के रचयिता गणघर हैं श्रौर उपागो के रचयिता विभिन्न स्थविर हैं । इसलिए जग श्रौर उपाड्ध का परस्पर एक दूसरे का कोई सम्बन्ध नही है । तथापि श्राचार्यों ने प्रत्येक अग का एक उपाग माना है । आाचाय शभयदेव ने श्रौपपातिक को आचाराग का उपाग माना है। आचाय॑ मलयगिरि ने राजप्रश्नीय को सूत्रकृताग का उपाग माना है. पर गहराई से झ्नुचिन्तन करने पर जीवाभिगम श्रौर स्थानाग का, सूयंप्रज्ञप्ति ग्रौर भगवत्ती का, चन्द्रप्रनप्नि तथा उपामकदशाग का, वण्हिदिमा श्रौर दृष्टिवाद का पारस्परिक सम्बन्ध सिद्ध नही होता । इस क्रम के पीछे उस युग की क्या परिस्थितियाँ थी, यह शोधाधियों के लिए अन्वेपणीय है । सम्भव है, जव आगम-पुरुप को कमनीय कल्पना की गई, जहाँ उसके जग स्थानीय श्रागमों की परिकल्पना श्रौर अग सूत्नो की तत्स्थानिक प्रतिप्ठापना का प्रश्न प्राया, तव यह क्रम विठाया गया हो । श्राधनिक चिन्तकों का यह्‌ भी श्रभिमत है कि श्रोपपातिक का उपागों मे प्रथम स्थान है, वह उचित नही हैं, क्योंकि ऐतिहासिक दृष्टि से प्रज्ञापना का प्रथम स्थान होना चाहिए । कारण यह हैं कि प्रज्ञापना के रचयिता श्यामाचार्य है जो महावीर निर्वाण के तीन सी पैतोस में. युगप्रघान श्राचार्य पद पर विभूपित हुए थे । इस दृष्टि से प्रनापना प्रथम उपाग होना चाहिए । हमारी दृप्टि से श्रीपपातिक को जो प्रथम स्थान मिला है, बह उसकी कुछ मौलिक विशेपत्ताग्रो के कारण ही मिला है । इसके सम्बन्ध में हम श्रागे की पक्तियो मे चिन्तन करेंगे । यह पूर्ण सत्य है कि श्राचाराग में जो विपय चचिन हुए है, उन विपयो का विश्लेपण जैसा श्रौपपातिक में चाहिए, बसा नही हुमा है । उपाग अगों के पूरक श्रौर यथार्थं सगत्ति विठाने वाले नही है, किन्तु स्वतन्त्र विपयो का निरूपण करने वाले हैं । सूर्घन्य मनी पियो के लिए ये सारे प्रश्न चिन्तनीय है । श्रौपपानिक प्रथम उपाग है । जगोमेजो स्थान श्राचाराग का है, वही स्थान उपागों में श्रौपपातिक का । प्रस्तुत आ्रागम के दो श्रध्याय हैं । प्रथम का नाम समवसरण है श्रौर दूसरे का नाम उपपात है । द्वितीय अध्याय उपपात सम्बन्धी विविध प्रकार के प्रश्न चाचित हैं । एतदर्थी नवागी टीकाकार आचाये अभयदेव ने श्रौपपातिक- वृत्ति मे लिखा है--उपपात-जन्म-देव शभ्रीर नारकियों के जन्म तथा सिद्धि-गमन का वर्णन होने से प्रस्तुत श्रागम का नाम श्रौपपातिक है? * । =+ ठ म विन्टगनित्ज ने प्रौपपातिकर के स्थान पर उपपादिकर शब्द का प्रयोग किया है। पर श्रौपपात्तिकमे जो अर्थ की गम्भीरा ह, वह उपपादिके णब्द मे नही ह । प्रस्तुत भ्रागमका प्रारम्भिक अश गद्यात्मकदहै श्रौर अतिम अण पद्चात्मक हैं । मध्य भाग में गद्य और पद्य का सम्मिश्रण है । किन्तु कुल मिला कर प्रस्तुत सुत्र का झधिकाश भाग गद्यात्मक ही हैं। इसमें एक आ्रोर जहाँ राजनैतिक, सामाजिक श्रीर नागरिक तथ्यों की चर्चाएँ की हैं, दूसरी श्रोर धामिक, दार्शनिक एव सास्कृतिक तथ्यो का भौ सुन्दर प्रतिपादन हुम्रा है। इस श्रागम की यह सबसे वडी १० उपपततन उपपातो--देव-नारक-जन्म सिद्धिगमन च । श्रतस्तमधघिकृत्य कृतमध्ययनमौपपातिकम्‌ । -थ्ौग झ्रमयदेव वृत्ति [ १७ |




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now