करकंड चरिउ | Karakand Chariu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना १ तरह अवलोकन किया । मिंहामनपर न्दं एक गाठ दिली चो शोपाको विगाड रहौ थौ । एक पुराने शिल्पकारसे पूछनेपर उसने कहा कि जब वह गुफा बनायों गयी थी तव वहाँ एक ललवाहिनी निकल पढ़ी थी। उसे रोकनेंके लिए ही वह गाँठ दी गयी है। यह सुनकर करकडुको उस जलवाहिनीके दर्शन करनेका कौतुक उत्पन्न हुआ और उस शिल्पकारके बहुत रोकनेपर भी उन्होंने उम गाँठको तुढवा ढाल । गाँठके टूटते ही वहा एक भयकर जलप्रवाह निकल पडा लिसे रोकना असम्भव हो गया । सारी गुफा जलसे भर गयी । यह्‌ देखकर करकडूको अपने क्ियेपर पश्वात्ताप होने णा । निदान एक विद्याघरने आकर उसका सम्योधन किया, उम्र प्रवाहकी रोकनेका वचन दिया तथा उस गुफाके वननेका इतिहास भी कह सुनाया । (४) विद्यावरने कहा कि एक समय दक्षिण विजया्के रथनूषूर नगरमे नीक बौर महानीक नामके दो विद्यावर भाई राज्य करते थे । किन्तु शत्रुमे परास्त होकर वे वहामे भाग निकले और तेरापुरमें आकर रहे । धीरे-धीरे उन्होने बहाँ राज्य स्थापित कर लिया । एक मुनिके उपदेशमे उन्होंने जैनवर्म ग्रहण कर लिया और बह यूफा-मदिर बनवाया । इसी मय दूसरे दो विद्यावर भ्राता लकाकी तरफ टाबराको जा रहे थे । मर्यदेशके पूदी पर्वतपर उन्होंने एक रावणके बंधज-द्वारा बनाये हुए जिनमदिरमें एक मुन्दर जिनमूति देखो । उन्होंने विचार किया कि ऐसी मूरति हम अपने यहा वनवावेंगे, इस हेतु वे उस मृतिको उठा कर ले चले । तेरापुर पहुचनेपर वें उस मूरतिको पहाडीपर रखकर लिनमदिरकी बन्दनाकों गये । छोटकर आनेपर जेब ये उम मूर्तिको उठाने छगे तब वह नहीं उठी । निदान एक मुनिके उपदेशसे उन्होंने उसे वही छोड़ा और बैराग्य धारण कर लिया । इनमें-से एक भाई ठो शुद्ध तपस्या करके स्वर्गकों गया और दूसरा मायाचारीके कारण मरकर हाथी हुआ । स्वर्गवासी भाई अवधिज्ञानसे अपने भाईकी दुर्गतिको जान कर बहा आया और उसे जातिन्मरण कराया जिमके कारण वह उस वामीकी मूर्तिको पूजने गा । थे समाचार सुनकर विद्यापर- मे करकडुको एकं भौर गुफा वनतरानेकी साह री । करकडुने वहा दो गुफायें और वनवायी । इसके पदचातु एक बडे दु लकी धटना हदं । एक त्रि्याधर, हाथीका ठय घरकर, आया गौर केरकडूको भूलाकर मदनावली- को हर ठे गया 1 करक शोकमें बहुत हो विह्वर हए, किन्तु एकं एवं जन्मके संयोगी विद्याघरके समझाने, तथा पुन मयोगका भादवासन देने व॒ सराहन दत्तका धाल्याने भुनानेपर समाधान हए भौर भागे वहे । (५-६) करकड महर दीप पहुचे मौर बहाको राजपुत्रौ रतिवेगाका पाणिग्रहण किया । उसके साथ जब वे जलमार्गमे लौट रहे थे तब एक भीम-काय मच्छने उनकी नीकापर घावा किया । उसे मारनेके लिए वह शस्त्र लेकर और मल्ल-गाठ वावकर समुद्रमें कूद पड़ा । मच्छको तो उसने मार डाला, पर वह लोटकर नावपर ते था सका । उमे एक विद्यावरपुत्री हर े गयी ! रतिवेगाके शोकका पारावार म रहा। मंत्री झटपट बेडेको किनारेपर छाया। रतिवंगाने पूजापाठ प्रारम्भ किया जिससे पद्मावती देवीने प्रकट होकर उसे लाव्वासन दिया । (७) देवीने अरिदमनका आश्यान सुनाया । रहिवेगाके दिन वहीपर धर्म-कर्ममे वीतने लगे । उधर करकड- को बह विद्यावरी अपने घर ले गयी और अपने पिंताकी भाज्ञा लेकर उसने उन्द्ठें अपना पति दना लिया। वहाकी फद्धिका उपभोग करके अपनी नवल बधूमहित करकडू पुन रतिवेगासे ,आ मिले । भव उन्होने चोर, चेर गीर पाण्डय नरेशोकी सम्मिलित सेनाका मुकाबला किया भर उन्हें हराकर अपना प्रण पुरा किया । ' अपना पैर उनके मस्तकपर रखते - समय राजाकों उनके मुकुटोपर जिन प्रतिमाके दर्शन हुए । यह देखकर राजाकों भारी पर्चात्ताप हुमा । उन्होंने उन्हें पुन राज्य देना चाहा, पर वे स्वाभिमानी द्रविडाधिपति यह' कहकर तपस्याकों चले गये कि अब हमारे पुत्र-पौश्नादि ही आपकी सेवा - करेंगे । -वहामे छौटते हुए करकड़ु पुन तैरापुर भये । यहा उमौ कुटि विद्याधरे पत्वाततापपर्वक मदनावलीकों लाकर सौप दी । वे फिर चम्पा- गमरीको लौट आये भौर वहा राज्य-सुख मोगने लगे । (८) एक दिन बनमालौने आकर खबर दो कि नगरके उपवनमें शीलगुप्त मुत्तिराजका शुभागमन हुआ




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