करणीन्द्र - कला - प्रकाश | Karanindra - Kala - Prakash
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
180
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)इ
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; विभूति की द्मकती मुक्तावली मे संवत् १६६४ चि शुभ श्रापाद
शुक षा नवमी शुक्रवार को हा । वास्तव मे शक्तियो का लोक-
रंजनकारी स्वरूप विषमताओं में ही प्रकट होता है जो परा-शक्ति
की प्रेरणा से भौपडियों से प्रासादों में, कारागारों से दु््र-स्खलित
} ,(्ब-मन्वरं भे एवं राज्य-प्रासादो से स्वगेतुल्य बनोद्यानों में
~ ` परिणत होकर, लोकदित का बाना पहनता है । इस किंकर
को उसी झाद्याशक्ति के- चरण-कमलों में झाज निक्टतम
चतुर्थाश शताब्दी का अवसर बिताने का मौका मिला है. जोधउुर
मरएडलन्तगेत वेसरोली स्टेशन से दो मील दूर इसी झाया-शक्ति
ने मरू-वसुन्घरा को निज झवतारणा से पावन एवं पूत किया है ।
भौतिक स्वरूप में ात्मश्लाघा करने में दविचिकिचाहट छावश्य
॥ होती है किन्तु मानस-प्रकृति की उच्छ'खल भावना पुनः बाध्य
करती है कि कवि को श्री वार्दजी महाराज की नर-देह का
* मातुल-पद भौतिक देह-स्वरूप भी प्राप्त हुआ है |
काव्य में वर्शित जो कुछ शुद्धाशुद्ध व्यल्ननस्वरोयुक्तपदावली
काव्य-मर्मज्ञों को मिले वह सब बाईजी मददाराज की वाऋ-वरदान-
मूल की-ही एक झरु-सम्मत कनी है. ।- यदि इस कनी में
दमक है. तो यह उन्हीं 'चरण-कमलों का प्रसाद है, 'और यदि
घुन्बलाइट ,है. तो इस किंकर के दंभ-तिभिराबृत हृद्य की
$ धृष्टता ह ।
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