करणीन्द्र - कला - प्रकाश | Karanindra - Kala - Prakash

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Karanindra - Kala - Prakash by श्री हिंगलाज दान - Shri Hingalaj Dan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इ +> ; विभूति की द्मकती मुक्तावली मे संवत्‌ १६६४ चि शुभ श्रापाद शुक षा नवमी शुक्रवार को हा । वास्तव मे शक्तियो का लोक- रंजनकारी स्वरूप विषमताओं में ही प्रकट होता है जो परा-शक्ति की प्रेरणा से भौपडियों से प्रासादों में, कारागारों से दु््र-स्खलित } ,(्ब-मन्वरं भे एवं राज्य-प्रासादो से स्वगेतुल्य बनोद्यानों में ~ ` परिणत होकर, लोकदित का बाना पहनता है । इस किंकर को उसी झाद्याशक्ति के- चरण-कमलों में झाज निक्टतम चतुर्थाश शताब्दी का अवसर बिताने का मौका मिला है. जोधउुर मरएडलन्तगेत वेसरोली स्टेशन से दो मील दूर इसी झाया-शक्ति ने मरू-वसुन्घरा को निज झवतारणा से पावन एवं पूत किया है । भौतिक स्वरूप में ात्मश्लाघा करने में दविचिकिचाहट छावश्य ॥ होती है किन्तु मानस-प्रकृति की उच्छ'खल भावना पुनः बाध्य करती है कि कवि को श्री वार्दजी महाराज की नर-देह का * मातुल-पद भौतिक देह-स्वरूप भी प्राप्त हुआ है | काव्य में वर्शित जो कुछ शुद्धाशुद्ध व्यल्ननस्वरोयुक्तपदावली काव्य-मर्मज्ञों को मिले वह सब बाईजी मददाराज की वाऋ-वरदान- मूल की-ही एक झरु-सम्मत कनी है. ।- यदि इस कनी में दमक है. तो यह उन्हीं 'चरण-कमलों का प्रसाद है, 'और यदि घुन्बलाइट ,है. तो इस किंकर के दंभ-तिभिराबृत हृद्य की $ धृष्टता ह ।




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