जैन तत्त्वप्रकाश | Jain Tattvaprakash

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छितीवावुति की प्रस्तावनां १७ मध्र दुख न परै हस भ्रकार सरलता भोर मधुरतः के साथ रेक्क शब्दां मे उल्लेख सिया है शसल्िये हरक पाटा को कछ न कछ लाज तो! मवश्य टी प्राप्त होगा इस वक्त समालोचना करने का रिवाज प्रचलित होन ते भथमावृर्तः प्रसिद्ध कर इसकी कुछ भी प्रसेशा नहीं करते हुए तटस्थ रह प्रतीक्षा करते थे कि देखें जैन समाज इस विषय में क्या मत देता है जैन समाज के कऋर -कमलें। में यह ग्रन्थ उपस्थित होति ही प्राण प्यारा-चन भ्यो सर्पः समय में २००० प्रती खपगई. साधमार्गी,-मन्दिरिमार्गी, दिंगस्बर, तेंगपथों; शिव, वैष्णव, इसलाम इत्यादि के द्विन्दी, गुजराती, उरदू, 'अग्रेजी आांदि में. सैकड़ों प्रतेशा पत्र और हजारों याचना पत्र हिन्द के सिवाय ्फरीरक' नारतर आदि देशों से प्राप्त हुए तब हमने आना कि इस जमाने मँ एसी. पुस्तक की परमारयकता है. उस वक्त हितीयावृती प्रसिद्ध कराने बैंगलोर निवापी सेठजौ भिरधारीलारूजी अन्न गजजी श्रौर सिकन्द्राबाद्‌ निराली शेठ निहलचन्दजी गम्मीरमछ्जी के सुपुत्र सहश्रषलजी उर्मगी बने, तव. “जन तत्व प्रकाश” में किपी को कुछ विदुड्ता या अशुद्दी साठमः हुई - हो तो हमें दशाइये सादर स्वीकार उचित सुधार करेंगे, ऐनी ५०० जाहि- रातों छपवाकर येग्य.रथान भेजी गेई किन्तु गुणरत्नाकर पूज्य श्री सोहन ज़ालजी (पंजाबी) महाराज के सिशय किती ने भी कुछ उत्तर नहीं दियां. तब जाना कि यह बहु मान्य गौर शुरू है. तब कुछ झुष्दी कौर ७-८ फारम जिसकी वृद्धी कर दूसरी बार थी २००० अति छपवाई -गई. “कि 2 ८ हर्ट (कद्‌




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