हिंदी नाट्य - विमर्श | Hindi Natya Vimarsh

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Hindi Natya Vimarsh by गुलाब राय - Gulab Raay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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; की प्रतिभा के योतक हैं । बहुत संभव है कि यह प्रतिभा नाटक- [ १३ ; रपचना की 'ओर भी गई होगी । परंतु यह'तो अनुमान 'छर फल्पना की नात रही । पाणिनि के ५५ मे कुशान्धभ रौर शिलालिन† नाम के नट- ; सूत्रकारो के नाम मिलते हे । यद्‌ निश्चित रूप से नहीं कदा जा सकता कि इन नट-सत्रकारो फे प्रन्थ केवल चत्त या चय से ही सम्बन्ध रखते थे या * नास्य से । सट का संबंध नाट्य छोर नाटक से है । नट श्र नटियाँ झासि- , नय करती थीं । इससे बहुत चरंश मे यही प्रमायित होता है किये सूत्र प्मभिनय करने वाले नटो से ही संबंध रखते थे । पतञ्जल महाभाष्य में (ईसा पूर्व १४० वर्ष ) कंस-वध 'ौर बलि-बंधन का उल्लेख च्राता है । यह शोभनिक लोगों के द्वारा किया जाता था । इसलिए कंस-वघ या बलि-बंध 'मादि घटनाएँ भूतकालिक होती हुई भी 'झभिनय द्वारा .उनका व्तेमान मे : बात होता था । जैसे कंस 'झब भाग जाता है, बलि वोधा जाता है । | पाणिनि मे नाटक शाब्द नदीं आया किन्तु कन्दी शब्दो के भाव से हम कोई मत निशित नदीं कर सकते हे । व्याकरया में उन्दीं शब्दो का ” उल्लेख श्नायेगा जिनकी सिद्धि या प्रयोग में कुछ गड़बड़ हो । विनयपिटक प्राचीन श्रन्थ है । उसके चुल्ललग्ग से पता 'यलता है , कि रंगशाला में नतेकियों से बात करने ओर नाटक देखने के च्रपराध में , अजित 'और पुनवेसु नाम के दो मित्तुओं को प्रन्नाजनीय दण्ड सिला / शमर वे बिहार से निर्वासित कर दिये गये | इसी प्रकार जैन कल्पसूत्रों से भद्रबाहु स्वामी ने ( ईसा से प्रायः ३०० वषे पूव ) जइवरत्ति साधुं के सम्बन्ध में एक साधु का 'चल्लेख किया है, जो नर्यो का नाटक देखने जाया करता था } एक वार जन वह्‌ नटों का खेल देखने गया था, तव उसके शुरु ने सना कर दिया. था कि नटों का नाटक देखने न जाया कर । उह एक रोज्ञ फिर नाटक देखने गया । गुर के डॉँटने भ कषा. कि रापने नरो के नाटक देखने को मना किया था, { यदं तो नटियों का खेल था । . भरतसुनि के नास्थ-शास्त्र का समय निश्चित रूप से नहीं बतलाया 1 लाता तो भी उसमे जिन जातियों का उल्लेख राता है, ससे विदित होता दहै कि वह बहुत प्राचीन है क्योकि वे जातियों बुद्ध के समय में थीं भौर फिर लुप्त हो गई । लक्षण भन्थ तो तभी यनते हैं, जब बहुत से लक्ष्य-प्रन्थ | -बन सुकते द नावय-शाल भ भी “अयत-मंथन' और 'नरिपुर-दाद' नाम के > (कमन्दङृशाश्वादिनि. ।. पे “'पाराशर्यशिलालिश्या भिक्लुनटसुत्यो * । पर्र्णन्नतकुक्ननन पातव्या त ४ कवं ˆ ५ न ५




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