ब्रह्मसूत्र प्रवचन भाग २ | Brham Sutra pravchan Part -2
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
17 MB
कुल पष्ठ :
500
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)तत्वमसि, अह् ब्रह्मास्मि आदि जो ब्रह्मनिरूपक वचन है वे हो
हमारे अन्त.करणमे ब्रह्मप्रमा उत्पन्न करनेमे समय हैं । वे ब्रह्म-
निरूपक “ब्द ' ही वेदान्तके नामस जाने जाते हैं ।
वेदान्तकरो वेद क्यो नही बोलते ? बोल सकते ह परन्तु प्रत्येक
वेदवाक्य वेदान्त नही होता । वेद सामान्य है भौर वेदान्त प्रकृष्ट ।
वेद सव प्रकारके अधिक्रारियोके ल्िएहै जबकि वेदन्त एक
विशेष अधिकारी ( ब्रह्मजिज्नासु )के लिए है ।
वेद ससे पहिले रागी अधिकारीको देखत्ता है । रागीको
धन भी चाहिए, भोग भी चाहिए ओर भोगके प्र्तिबल्धकी
निवृत्तिके लिए क्रोध भी । रागीको केवल धनसे सुख नही होता
वयोकि प्रतिबन्ध रहते न तो धनका भोग होता है भौर न सुख ।
एक वार हम कोई २५ साधु एक सेठके घर गये । वह सेठ
तो बहुत उदार था । साधु लोग कोई एक-एक सेर खीर खा गये ।
किन्तु उवर उस सेठको दो सुखी रीटी चौबीस घण्टोमे मुश्किलसे
हुजम होती थी |
तो रागवद् सब लोग घन, भोग भौर प्रतिबन्ध-निवुत्तिके
लिए प्रयत्नशील होते है। ऐसे लोगोके लिए वेद कहता है :
'बावू, तुम छोग स्वगं चले जाभो ! वहाँ घन भी खूब है भौर
भोग भी ज्यादा मिलेगा, प्रतिबन्ध भी वहाँ नहीके बराबर है ।
क्यो धरतीपर घन ओर भमोगके लिए लोगोको तकलीफ देते हो ?”
लोगोने आपत्ति को कि “क्या वेद लोगोमे स्वगंकी अप्सरा,
स्वर्गका अमृत, स्वगका भोगानुकूक दिन्य-देह् इत्यादिको वासना
पदा नही करता ?' तो कहा कि यह् विहित भोगकी वासना हैः
अतः अधमं नही है । इसमे आइचयं यह् है कि स्वके सुखभोगके
लिए मनुष्यको इस रोक ओर इस जीवनके रागप्राप्त जो विहित
भोग हैं उसमें भी त्यागभावसे भोग करना पड़ता है अथवा
वेदान्तमोमांसा-शाश््र 1 ( ७
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